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राजनीतिक झूठ कोई खेल नहीं जनता और देश के साथ छल है गंभीर अपराध घोषित हो

राजनीतिक झूठ कोई खेल नहीं जनता और देश के साथ छल है गंभीर अपराध घोषित हो

राजनीतिक झूठ कोई खेल नहीं जनता और देश के साथ छल है गंभीर अपराध घोषित हो

झूठ बोलना पाप हो सकता है, न्यायालय में झूठ बोलना अपराध हो सकता है लेकिन जनता के न्यायालय में झूठ बोलना अपराध नहीं है। सभी राजनीतिक दलों को झूठ बोलने की छूट है लेकिन ये देश के साथ जनता के प्रति छल है, अपराध है यह कोई नहीं बोलता। यह प्रश्न ही नहीं उठाया जाता है कि राजनीतिक झूठ बोलने का अधिकार क्यों मिला है नेताओं को ?

राजनीतिक झूठ कोई खेल नहीं जनता और देश के साथ छल है गंभीर अपराध घोषित हो

हमें राजनीति हर दिन झूठ बोलना ही सिखाती है जबकि झूठ बोलना पाप है। राजनीति का प्रभाव सामान्य जनता पर भी पड़ता है, इसे किसी प्रकार से नकारा नहीं जा सकता और राजनीतिक झूठ का प्रभाव भी जनता पर पड़ता है जिससे अंततः जनता में भी कई प्रकार के दोषों की वृद्धि होती है। यदि राजनीतिक झूठ का अनाचार बढ़ता ही गया तो जनता भी अनाचारी हो जायेगी।

राजनीतिक झूठ से भी बड़ी समस्या है जनता की चुप्पी। कोई भी अनाचार हो जनता को उसे बंद करने के लिये जागरूक रहना चाहिये तभी लोकतंत्र को स्वस्थ माना जा सकता है। लोकतंत्र का तात्पर्य मात्र कुछ लोगों का बोलना और उन्हीं गिने-चुने लोगों की बात सुना जाना नहीं हो सकता ! स्वस्थ लोकतंत्र इसके विपरीत होगा जहां जनता को भी बोलने का अधिकार होना चाहिये और उसे सुना जायेगा यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिये।

राजनीति में झूठ को मान्यता

राजनीति में झूठ को मान्यता प्रदान करने के लिये एक सूत्र भी गढ़ लिया गया है यद्यपि ये राजनीति का सूत्र नहीं ज्योतिष का सूत्र है उसे दुरुपयोग करने के लिये ग्रहण कर लिया गया है और इसमें भी राजनीतिक झूठ बोला जाता है। ग्रह के संबंध में कहा गया है “जहां होता है वहां दिखता नहीं और जहां दिखता है वहां होता नहीं” इसी सूत्र को राजनीति में कहा जाता है : “जो दिखता है वो होता नहीं जो होता है वो दिखता नहीं” / “जो कहा जाता है वो किया नहीं जाता और जो किया जाता है वो कहा नहीं जाता”

इस प्रकार से राजनीतिक झूठ को मान्यता भी दी जा चुकी है। वो सरकार हो या विपक्ष कितनी नैतिक होती है जो बनती ही असत्य के नींव पर है ? ये भारतीय संस्कृति तो नहीं है, भारत की राजनीति में ये झूठ निश्चित रूप से विदेशी संस्कृति की छाप है। उसे राजनीति कहना चाहिये या छल नीति जिसमें सब झूठ-ही-झूठ बोलते रहते हैं। राज्य के जो विषय ऐसे होते हैं जो सार्वजनिक नहीं होने चाहिये उसके लिये तो गोपनीयता का विधान अलग से होता ही है फिर झूठ को मान्यता क्यों ?

उदाहरण

उदाहरण में हम वर्त्तमान सत्ता पक्ष से ही आरंभ करेंगे क्योंकि इसके झूठ गिने जा सकते हैं, विपक्ष के झूठों की गिनती ही नहीं की जा सकती और दूसरी बात ये भी है कि विपक्ष के पास सत्य सुनने मात्र की भी शक्ति नहीं है। संभव है झूठ से सराबोर विपक्ष के कारण ही सत्ता पक्ष को भी झूठ बोलना पड़ा हो।

सत्ता पक्ष में ही एक विशेष नेता हैं जो भाजपा के सहयोगी दल के हैं और उन्हें पलटूराम भी सम्बोधित किया जाता है। बारंबार इधर से उधर और उधर से इधर होते रहते हैं और हर बार एक राजनीतिक झूठ बोलते अब इधर ही रहूंगा, दुबारा उधर नहीं जाऊंगा। इनके ऊपर भी अधिक नहीं बोला जा सकता। मनीष काश्यप को प्रताड़ित करने में भले ही तबकी इनकी सहयोगी का योगदान रहा हो किन्तु इनकी इच्छा नहीं थी यह सिद्ध नहीं किया जा सकता।

हम इस संबंध में भाजपा के एक बड़े नेता की चर्चा करूंगा जिनको मोदी का सबसे बड़ा निकटवर्ती माना जाता है, दाहिना हाथ भी कहा जा सकता है। कई बात ऐसी होती है जो मोदी स्वयं बोलना उचित नहीं समझते और वो बातें यही करते हैं इनका नाम है अमित शाह। भाजपा के अध्यक्ष भी रह चुके हैं, भाजपा को सत्ता तक पहुंचाने में इनका बड़ा योगदान माना जाता है और इनके बारे में जो बहुत बड़ी बात बोली जाती है वो है “राजनीति का चाणक्य”

यद्यपि ये आधा झूठ और आधा सच दोनों था। इसमें नीतीश कुमार को भाजपा (NDA) के साथ नहीं मिलाउंगा ये आधा झूठ था क्योंकि इसके साथ एक शर्त थी चुनाव के बाद नहीं मिलाउंगा। मतलब आधा सत्य जो नहीं बोला गया था वो यह था कि चुनाव के पहले मिलाया जा सकता है।

लेकिन अमित शाह के इस बोल के बाद भाजपा के कई नेताओं ने आधे झूठ को पूरे झूठ में बदल दिया था।

एक झूठ तो पूरी जनता जानती है और संभवतः लोकसभा चुनाव में इसको प्रकट भी कर चुकी है भाजपा का वो झूठ है उन नेताओं का भी भाजपा में सम्मिलित हो जाना जिसे भ्रष्टाचारी बताते रहते थे। इस विषय को तो विपक्ष ही नहीं मीडिया भी पूरे दम से उठाती रहती है। और जनता स्वयं इस पर अपना निर्णय सुना भी चुकी है।

इतनी चर्चा के उपरांत ये आशा की जा सकती है कि विपक्ष को भी सत्य सुनने और पचाने का थोड़ा साहस मिला होगा। अब विपक्ष और EVM पर राजनीतिक झूठ और झूठ की कड़ी को समझना आवश्यक है साथ ही इसके दुष्प्रभाव को भी।

विपक्ष का झूठ या झूठमय विपक्ष

गोस्वामी तुलसीदास ने संभवतः आज के विपक्ष की भविष्यवाणी करते हुये रामचरित मानस में एक चौपाई लिखा था “झूठइ लेना, झूठइ देना। झूठइ भोजन, झूठ चबेना।” हिंडन बर्ग से लेकर अडानी तक, राफेल-राफेल से लेकर पेगासस तक सबके सब झूठ और केवल झूठ।

दस वर्षों तक EVM पर झूठ बोलने के बाद सर्वोच्च न्यायालय तक जाना फिर वहां भी डांट सुनने के बाद चुनाव परिणाम से कुछ दिनों तक मौन रहना लेकिन पुनः EVM-EVM चिल्लाने लगना थोड़ा नहीं बड़ा झूठ है। बस झूठ ही नहीं देश और दुनियां में भारत की एक संविधानिक संस्था की शाख पर प्रहार और जनता पर अविश्वास है।

इसमें झूठ की कड़ी कहां है ?

एलन मस्क के द्वारा EVM पर प्रश्नचिह्न लगाना, फिर एक समाचार पत्र में EVM और OTP को लेकर झूठ लिखना फिर कांग्रेस और उसके बाद पुरे इंडि गठबंधन का EVM-EVM चिल्लाने लगना, फिर चुनाव आयोग द्वारा खंडन करने पर भविष्य के संकट से बचने के लिये समाचार पत्र की क्षमाप्रार्थना पूरी-की-पूरी कड़ी बनी ही तो है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे सब कुछ योजनाबद्ध रूप से किया गया हो। यहां तक कि समाचार पत्र द्वारा क्षमाप्रार्थना करना भी संभवतः योजना का ही भाग हो।

इससे अधिक विश्लेषण उचित नहीं है, कहावत है “समझदार को इशारा काफी”

देश और विद्यालय

विद्यालय में शिक्षा मिलती है, किन्तु परिवार भी एक प्रकार से विद्यालय की भूमिका निभाता है बच्चे अपने परिवार से जितना सीखते हैं उससे बहुत कम विद्यालय में सिखते हैं, पुस्तकीय ज्ञान भले ही अधिक प्राप्त करते हैं। उसी प्रकार समाज भी एक विद्यालय की भूमिका का निर्वहन करता है और एक समाज के लोगों की सोच में लगभग समानता होती है।

उसी प्रकार देश भी एक विद्यालय की भूमिका का निर्वहन करता है और राजनीति के माध्यम से जनता को शिक्षा देता है। अब यदि देश की राजनीति ही झूठ पर आधारित हो तो वह देश की जनता को क्या सिखाती है प्रबुद्धजन स्वयं विचार करें।

निष्कर्ष : अंत में यदि निष्कर्ष कहा जाय तो इसमें दो मत हो ही नहीं सकता की राजनीति और झूठ में अनन्य संबंध स्थापित हो चुका है और इसका प्रमाण यह है कि कोई भी पक्ष झूठ से अछूता नहीं है और यदि झूठ का सहारा न ले तो संभवतः सत्ता ही न मिले। राजनीति से झूठ का अंत होगा यह मानना असंभव है किन्तु प्रयास तो करना ही चाहिये।

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