Site icon Kya Samachar hai

NGO वो, जनजीवन बदले जो

NGO वो जनजीवन बदले जो

NGO वो जनजीवन बदले जो

देश में लाखों NGO काम कर रहे हैं कुछ धर्मार्थ बनते हैं कुछ सेवार्थ तो कुछ धनार्थ। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि गांवों में जमीन पर कहीं कोई NGO दिखाई नहीं देती। जहां NGO की सर्वाधिक आवश्यकता है वहां कुछ करते नहीं मिलती। यदि कहीं दिखे भी तो वह मतांतरण आदि के उद्देश्य से कार्य करने वाली होती है अथवा कुछ सीमित क्षेत्रों में ही कोई विशेष कार्य करते रहती है। यहां हम एक ऐसे NGO के विषय को समझने का प्रयास करेंगे जो सामान्य जनजीवन को बदल सके।

NGO वो, जनजीवन बदले जो

NGO दर्पण पर पंजीकृत कुल NGO की संख्या 224490 है और गांवो की कुल संख्या साढ़े 6 लाख है। यदि ये NGO 3-3 गांवो में जनजीवन सुधारने का काम करें तो 3 वर्ष में सामन्य जनजीवन बहुत ही उच्च स्तर का हो सकता है। 140 करोड़ लोग हैं और लगभग 25 करोड़ परिवार हैं। यदि प्रति NGO परिवारों को बांटा जाय तो लगभग 1100 आयेगा। यदि प्रत्येक NGO 3 परिवार से प्रतिदिन संपर्क करे तो प्रतिवर्ष सभी अपेक्षित को लाभ प्राप्त हो सकता है। किन्तु इस प्रकार की कोई अपेक्षा करना स्वयं में दोषपूर्ण है।

कार्यकर्ता : 25 करोड़ परिवारों को सहायता की अपेक्षा होती है यह सत्य नहीं है किन्तु इनमें से 60% परिवारों को सहयोग की अपेक्षा होती है यदि ऐसा मानकर चलें तो 15 करोड़ परिवार होता है। यदि इन 15 करोड़ परिवारों को प्रतिवर्ष न्यूनतम एक बार सहायता पहुंचाने की बात करें और प्रति कार्यकर्त्ता यदि 5 परिवार प्रतिदिन और वर्ष में 300 दिन कार्य के आधार पर विचार करें तो 1500 परिवारों को सहयोग किया जा सकता है।

यदि 1500 परिवार के लिये 1 कार्यकर्त्ता की आवश्यकता है तो 15 करोड़ परिवार के लिये 10000 कार्यकर्ताओं की आवश्यकता होगी। इसके अतिरिक्त जिला स्तर, राज्य स्तर पर भी अन्य कार्यों के लिये लगभग 1000 से 2000 कार्यकर्ताओं की आवश्यकता हो सकती है।

पारिश्रमिक : यहाँ एक प्रश्न यह भी हो सकता है कि ये कार्यकर्त्ता कौन होंगे पारिश्रमिक प्राप्त करने वाले या स्वयंसेवी ? निःसंदेह स्थायी रूप से इतने स्वयंसेवी कार्यकर्त्ता नहीं हो सकते अर्थात पारिश्रमिक प्राप्त करने वाले ही होंगे। यदि 15000 का औसत मासिक पारिश्रमिक रखा जाता है तो 15 – 20 करोड़ मासिक पारिश्रमिक अर्थात 180 से 250 करोड़ वार्षिक की आवश्यकता होगी जो एक बड़ी राशि हो जाती है।

तथापि यदि ऐसा करने के प्रयास किया जाय तो असंभव भी नहीं है। बहुत सारे लोग हैं जो विभिन्न NGO को उन सहायता राशि तो देते हैं किन्तु उसका सदुपयोग नहीं हो पाता अथवा सामान्य जन जीवन में को सुधारने का प्रयास नहीं किया जाता। साथ ही प्रारंभिक वर्षों में कुछ विशेष दानकर्ताओं को ही सहयोग करना होगा किन्तु भविष्य में ये सहयोग भी पूरे देश से प्राप्त होने लगेगा।

कौन करे : पूर्ण रूप से एक अलग प्रणाली बनाई जा सकती है अथवा RSS जैसी राष्ट्रव्यापी संस्थाओं से कार्यकर्त्ता मांगी जा सकती है। RSS स्वयं भी यदि एक नई अनुषांगिक इकाई बनाकर करना चाहे तो कर सकता है।

स्थानीय प्रतिनिधि क्यों नहीं कर सकते : यह प्रश्न उठ सकता है कि यदि स्थानीय प्रतिनिधि के माध्यम से करने का प्रयास किया जाय और कार्य के आधार पर भुगतान प्रणाली अपनायी जाय तो व्यय भी कम होगा कार्य भी अधिक होगा। किन्तु सबसे बड़ी समस्या यह है कि स्थानीय जन प्रतिनिधि भी अधिकतर सूचना आदि के लिये अन्य पर आश्रित होते हैं। बहुत सारे जनप्रतिनिधि तो ऐसे होते हैं जो स्वयं कार्य नहीं कर पाते मात्र हस्ताक्षर करना जानते हैं।

उद्देश्य

यह जानना महत्वपूर्ण है कि उद्देश्य क्या-क्या हों :

जीवन शैली में सुधार : वर्तमान में सामान्य जीवन शैली विकृत होती जा रही है। आहार-व्यवहार, सोचने की क्षमता व मानसिक स्थिति सर्वत्र विकृति उत्पन्न हो रही है। यह विकृति एक ऐसे आसुरी समाज को जन्म देते दिख रही है, जिसमें सभी परम स्वार्थी, लंपट, मनचला, उच्छृंखल, व्यसनी, उग्र, कामुक आदि होते दिख रहे हैं। कारण ढेरों हैं लेकिन निवारण कोई नहीं। सुदूर गांव में भी बच्चे सुबह से शाम तक ऐसे खाद्य पदर्थों का ही सेवन करते हैं जो उनके स्वास्थ्य व मानसिक स्थिति के लिये मीठा जहर होता है।

आज का बच्चा जन्म के कुछ महीने बाद से ही मोबाईल और दूरदर्शन का व्यसनी होता है अथवा 3 वर्ष से ही बस्ते का बोझ धोने लगता है। दोनों ही गलत है न तो बचपन मोबाईल विडियो देखने में समाप्त होना चाहिये और न ही 5 वर्ष से पहले ही बस्ते का बोझ ढोने वाला होना चाहिये।

शिक्षा पूर्ण होने से पहले ही कई प्रकार के दोष उत्पन्न हो जाते हैं, जैसे : व्यसन, कामुकता, उद्दंडता, अथवा आजीविका की चिंता। शिक्षा प्राप्ति काल में शिक्षा प्राप्ति के प्रति समर्पित रहने की आवश्यकता होती है न कि व्यसन, काम आदि दुर्गुणों का शिकार होना उचित है और न ही आजीविका की चिंताजाल में फंसना।

आजीविका शिक्षा प्राप्ति का अगला चरण है आजीविका के क्षेत्र में भी पथप्रदर्शन के नाम पर लूटने वाले तो होते हैं किन्तु उचित जो लुटने न जाये उसे कोई कुछ बताने वाला नहीं मिलता। जितने भी बच्चे दसवीं पास करते हैं सबके-सब नौकरी-नौकरी ही जप करने लगते हैं। क्या ये संभव है कि शत-प्रतिशत को नौकरी मिले ?

नौकरी के अतिरिक्त कौन सा कार्य-रोजगार है जिसमें वह अधिक सफलता प्राप्त कर सकता है ? रोजगार की दिशा में आगे बढ़ने के लिये, प्रेरणा देने के लिये कोई स्थानीय व्यवस्था नहीं होती। तीन ही विकल्प होता है :

मध्यम वर्ग को तबाही से बचाना : उपरोक्त मनोदशा के कारण आज का मध्यम वर्ग तबाह हो रहा है। गांवों में जाकर देखा जाय तो ढेरों उदाहरण ऐसे मिलेंगे जिसमें मध्यम वर्ग के अभिभावकों ने बच्चे को पढ़ाने के नाम पर जमीन बेचा, कर्ज में डूब गया और बच्चा नौकरी भी नहीं कर पाया, संपत्ति भी गंवाया। अभिभावक भी शोक में और उस बच्चे का तो जीवन कैसा होता है यह चर्चा ऊपर की जा चुकी है।

सर्वप्रथम तो मध्यमवर्ग को यह समझाना अपेक्षित है कि उसके बच्चे की क्षमता क्या है और उसे उच्च वर्ग से बराबरी करने का प्रयास करना चाहिये या नहीं। यदि मध्यमवर्ग को यह समझ में आ जाये कि नौकरी मिलना ही जीवन की सफलता नहीं है, आजीविका के लिये पर्याप्त अन्य अवसर भी होते हैं। बच्चे की शिक्षा के नाम पर उसे शिक्षा ही दिया जाना चाहिये न की जमीन बेचकर या कर्ज लेकर नौकरी का मंत्र जप करना सिखाया जाय।

निम्नवर्ग का उत्थापन : सरकार निम्न वर्ग का उत्थान करने के लिये भले ही आरक्षण दे रही हो लेकिन इसका लाभ उचित पात्र को नहीं मिल पा रहा है। जाति के नाम पर आरक्षण का लाभ भी वही लोग ले रहे हैं जिनका जीवन-स्तर पहले से अच्छा है। निम्नस्तर के लोगों के जीवन स्तर में सुधार हो इसके लिये यह आवश्यक है कि लाभ उसके पास पहुंचे न कि वह लाभ को ढूढने के लिये भटकता रहे।

निम्न वर्ग के लिये भी मात्र नौकरी ही विकल्प नहीं है अपितु उसके लिये अत्यधिक सरकारी योजनायें हैं किन्तु उसे ज्ञान ही नहीं हो पाता है। निम्नवर्ग भी मात्र आरक्षण के चक्कर में नौकरी के लिये ही जीवन का मुख्य कालखंड गंवा देता है।

मतांतरण रोकना : कुछ लोग धड़ल्ले से मतांतरण करने में जुटे हैं, कुछ लोग विरोध करने में लगे हैं, कुछ लोग अवरोध भी उत्पन्न कर रहे हैं, और कुछ लोग घरवापसी भी कर रहे हैं। मतांतरण पर अंकुश लगाना अत्यावश्यक है और यदि मतांतरण को नियंत्रित नहीं किया गया तो यह देश के लिये भी भविष्य में एक बड़ा खतरा बनने वाला है।

सहायता प्राप्त कराना : बहुत सारी सहायतायें ऐसी भी हैं जो अधिकतम लोगों को प्राप्त हो जाती है किन्तु बहुत सारी सहायतायें ऐसी भी हैं जिसके लिये अभी भी लोगों को पहले तो भागना-दौड़ना पड़ता है और फिर थक-हार कर सहायता प्राप्त करने के लिये जो खुरपुजाई देने की आवश्यकता होती है वह देना ही पड़ता है।

विद्वेष की भावना पर प्रहार करना : राजनीतिक कारणों से सामान्य जनजीवन भी विषाक्त हो गया है। समाज में भेद-भाव मिटाने के नाम पर सामाजिक विद्वेष को जन्म दे दिया गया है। इसके लिये तो सबसे अधिक आवश्यक राजनेताओं के आचरण और वक्तव्य में सुधार करना है। लेकिन जमीन पर भी जो विष फैल चुका है उसको निष्प्रभावी करना आवश्यक है। और NGO को दोनों स्तर पर कार्य करना होगा।

सही सूचना देना : आज के समय में मीडिया भी सही सूचना नहीं देती है और चुनी हुई सूचना ही देती है जो मीडिया को पसंद न हो वो सूचना जनता तक पहुंचने भी नहीं देती अथवा उतना विलंब अवश्य करती है जितना कर सके। वो सभी सूचनायें जनता तक पहुंचे जो आवश्यक है इसके लिये मीडिया से अलग भी कुछ व्यवस्था होना आवश्यक है। कई बार तो मीडिया को भी भ्रामक सूचना देते पाया गया है। राजनेता मीडिया में आकर सफेद झूठ बोल जाते हैं। प्रत्येक विषय पर पुष्ट सूचना प्राप्त करना जनता का अधिकार है और इस दिशा में भी प्रयास करने की आवश्यकता है।

इसी प्रकार और भी कई उद्देश्य हो सकते हैं।

कार्यकर्ताओं की अर्हता

सही दिशा में आगे बढने के लिये और अधिकतम सफलता प्राप्ति के लिये यह आवश्यक होता है कि जो काम करने वाले हैं वो योग्य हों। किसी भी कारण से यदि अयोग्यों को काम दिया जायेगा तो वह अनर्थकारी होता है।

उक्त कार्य करने वाले के लिये शिक्षित होना तो आवश्यक होगा ही, इंटरनेट पर काम करने में दक्ष हो यह आवश्यक ही होगा। इसके साथ यह भी आवश्यक होगा कि उसे देश की संस्कृति का ज्ञान हो, विदेशी संस्कृति क्या है यह समझ हो। कुछ लोग और संस्थायें विदेशी संस्कृति को भी भारतीय सिद्ध करने के प्रयास में मिली-जुली संस्कृति कहते हैं उनके लिये न तो कोई देश की संस्कृति है न ही विदेशी संस्कृति है। सही दिशा में काम हो इसके लिये यह आवश्यक है कि काम करने वाले को देश की संस्कृति का अच्छा ज्ञान हो। काम करने वाला स्थानीय हो यह भी आवश्यक ही होता है।

दाताओं के लिये समझने की आवश्यकता

देश की व्यवस्था ही बहुत वर्षों से भ्रमित रही है और दाताओं को भी भ्रमित करके रखा गया है। दान शब्द का NGO को दिये जाने वाले धनराशि से कोई संबंध नहीं है किन्तु NGO को जनकल्याणकारी, धार्मिक कृत्य करने के लिये आर्थिक सहयोग करना मात्र है। उसमें भी तब तो उतना भी पुण्य का भागी बनना संभव नहीं होता जब पुनः उस राशि का आयकर भरते समय छूट प्राप्त किया जाता है। अर्थात उपरोक्त डोनेशन का दान से कोई संबंध ही नहीं होता और न ही दान संबंधी पुण्य की लालसा रखनी चाहिये।

सरकार ने इसके लिये प्रेरित किया इसका कारण जनकल्याण ही था प्रछन्न कारण जो भी रहा हो। जब डोनेशन का उद्देश्य जनकल्याण है तो उस उद्देश्य की पूर्ति भी तो होनी चाहिये। जनकल्याण संबंधी जितने भी कार्य होते हैं वो तो गांवों में कहीं नहीं देखे जाते।

उदाहरण

एक गरीब को बेटी के विवाह में यदि एक-दो लाख की अतिरिक्त आवश्यकता हो तो उसे कर्ज ही लेना पड़ता है, कोई NGO उसकी सहायता करने के लिये नहीं देखा जाता। दहेज़ लेना और देना अपराध हो सकता है किन्तु एक नया जोड़ा जिसका विवाह हो रहा है, एक नया परिवार बनने जा रहा है उसकी तो बहुत आवश्यकतायें होती है। क्या दुल्हन को वस्त्र-आभूषण प्राप्त करने का अधिकार नहीं होता, क्या नये परिवार को घर की सामान्य वस्तुयें अपेक्षित नहीं होती है ?

पूर्व काल में बेटी का विवाह समाज का सामूहिक दायित्व माना जाता था और जो पिता समर्थ नहीं होता था उसके लिये समाज सहयोग करने के लिये आगे आता था। आज भी NGO के माध्यम से उस गरीब को भी कुछ वस्त्र-आभूषण का अधिकार दिया जाना चाहिये जिसके पिता सक्षम नहीं होते हों।

जो लोग आभूषणों से लदे रहते हैं, इतने आभूषण होते हैं कि उसकी सुरक्षा के लिये भी धन व्यय करते हैं वही लोग गरीबों के वस्त्राभूषण का अधिकार भी छीनना चाहते हैं और दहेज-दहेज चिल्लाते हैं। एक भी NGO ऐसा नहीं जो उनके लिये भी आभूषण की कोई व्यवस्था करे जो समर्थ नहीं होता है। एक दुल्हन को आभूषण का भी अधिकार होना चाहिये।

सरकार आयुष्मान कार्ड देकर अच्छी योजना चला रही है किन्तु गरीबों के साथ अच्छी योजनायें भी मजाक बनकर रह जाती है। गरीब जब अपनी चिकित्सा कराने जाता है तो उसे लगता है कि वह अस्पताल या डॉक्टर से कृपा प्राप्त कर रहा है। किसे कहाँ जाना चाहिये और हीनभावना से कैसे बचना चाहिये इतना भी ज्ञात नहीं होता है।

किसानों के लिये तो सरकार ने कंपनी (FPO) बनाकर काम करने की योजना बना दिया लेकिन किसानों को इसके बारे में सूचना मात्र भी मिल गयी हो तो उसे ही सराहनीय मान लेना चाहिये। उसके बाद कोई मार्गदर्शन, को सलाह मिला है गांव-गांव जाकर सर्वे करके ज्ञात करने की आवश्यकता है। हाँ कुछ लोगों ने भले ही FPO बना लिया हो लेकिन जो सुदूर गांव का वास्तविक किसान है उसे तो ज्ञात भी नहीं है। और यदि ज्ञात हो भी तो कैसे करें क्या करें कहां जायें कुछ भी पता नहीं है।

दुर्घटनाओं, आपदाओं के कारण ढेरों लोग मरते हैं, बहुत को अनुदान भी प्राप्त होता है। किन्तु उसके बाद उस परिवार के सामने आगे राह दिखाने वाला कोई होता है ? वो किस प्रकार का जीवनयापन करते हैं कोई देखने वाला होता है ?

निष्कर्ष : कुल मिलाकर सरकार और धनदाताओं को भी प्रचलित व्यवहार और व्यवस्था से अलग हटकर सोचने-समझने और करने की आवश्यकता है। सबको यह सोचने की आवश्यकता है कि जो धन डोनेशन कहकर दिया जाता है उसका लाभ सुदूरवर्ती गांव के लोगों को भी प्राप्त हो, जो सरकारी योजनायें बनती है उसका भी लाभुक को बिना अधिक भागदौर के लाभ प्राप्त हो यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है। और इसके लिये एक राष्ट्रव्यापी NGO बनाया जाना चाहिये जिसके सदस्य गांव-गांव में काम करें।

हारे हुये नवीन पटनायक बन गये विजेता
RSS & BJP, उछल रही है क्यों इंडि
Exit mobile version