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न्याय में राजनीति और निष्पक्ष न्याय | राजनीतिक न्याय का सरोकार किससे है ?

 न्याय में राजनीति और खटाखट खटाखट निष्पक्ष न्याय | राजनीतिक न्याय का सरोकार किससे है ?

हम वर्त्तमान में देख रहे हैं खटाखट खटाखट राजनीतिक न्याय। राजनीतिक न्याय क्या है, राजनीतिक न्याय निष्पक्ष कैसे हो सकता है ? न्याय में राजनीति और राजनीतिक न्याय निष्पक्ष न्याय से कितना अलग है और ये तीनों किस प्रकार से न्याय कहे जा सकते हैं ?

खटाखट खटाखट निष्पक्ष न्याय

निष्पक्ष न्याय

न्याय के सन्दर्भ में ये समझना आवश्यक है कि न्याय के साथ निष्पक्ष स्वतः सिद्ध होता है अलग से निष्पक्ष न्याय कहने की आवश्यकता नहीं होती। यदि स्वाभाविक रूप से निष्पक्षता का अवलम्बन न लिया गया हो तो वह न्याय नहीं माना जा सकता। न्याय का तात्पर्य ही है कि उसमें किसी के साथ पक्षपात नहीं किया गया है। 

राजनीतिक न्याय 

वर्त्तमान में लोकतंत्र के सापेक्ष एक नयी अवधारणा राजनीतिक न्याय की देखी जाती है। किन्तु राजनीतिक न्याय किसे कहा जायेगा यह स्पष्ट होना स्वयं में दुष्कर है :

  1. क्या राजनीतिक दलों में संतुलन रखते हुये न्याय करना राजनीतिक न्याय कहा जा सकता है ?
  2. जब राजनीतिक व्यवहार से न्याय प्रभावित हो तो उसे राजनीतिक न्याय कहा जा सकता है क्या ?
  3. क्या न्यायपालिका द्वारा स्वयं के वर्चस्व का स्थापन करने को राजनीतिक न्याय कहा जा सकता है?
  4. राज अर्थात राज्य (देश) का जिसमें हित हो वैसा न्याय करना राजनीतिक न्याय कहा जा सकता है क्या ?

इस प्रकार हम देखते हैं कि राजनीतिक न्याय किसे कहें इसी का निर्णय करना दुष्कर है। इनमें से किस पक्ष का अवलम्बन किया जाय इसका निर्धारण किस प्रकार किया जायेगा ?

1. यदि राजनीतिक दलों में संतुलन स्थापित करना राजनीतिक न्याय माना जाय तो इसका तात्पर्य यह होगा कि न्याय में घटना, साक्ष्य आदि की अनदेखी करते हुये न्याय नहीं किया गया अपितु राजनीतिक दलों के मध्य संतुलन स्थापित करने का प्रयास किया गया जिससे ये सिद्ध हो जायेगा कि न्याय नहीं हुआ। 

राजनीतिक दलों के स्वार्थ में समझौता संतुलन के लिये भी न्याय की अपेक्षा हो इसे अस्वीकार तो नहीं किया जा सकता क्योंकि यदि इसे अस्वीकार कर दिया जाय तो “जिसकी लाठी उसकी भैंस” वाली कहावत चरितार्थ होने लगेगी अर्थात “मत्स्य न्याय” के अनुसार “बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जायेगी”। इस कारण छोटी मछली को संरक्षित रखने के उद्देश्य से राजनीतिक न्याय का प्रथम प्रकार स्वीकार किया जा सकता है। 

किन्तु इसके कारण देश और प्रजा को हानि हो यह भी स्वीकार नहीं किया जा सकता। वर्त्तमान काल में कुछ राष्ट्रविरोधी तत्वों को राजनीतिक पक्ष सिद्ध कर दिया गया है। और इसी कड़ी में प्रायः देखा गया है कि राष्ट्रवादियों के प्रति न्यायपालिका अनपेक्षित और असंतुलित व्यवहार करती है किन्तु जो राष्ट्रद्रोही हो उसे राजनीतिक पक्ष मानकर संरक्षण दे दिया जाता है। “बेल का खेल” इसी कड़ी का सर्वोत्तम उदहारण है। 

उन राष्ट्रद्रोही तत्वों के देशविरोधी गतिविधि का आकलन किये बिना राजनीतिक तत्व में गणना करते हुये संरक्षण देना प्रजा और देश के लिये हितकर नहीं होता और न ही न्यायपालिका के लिये हितकर होता है क्योंकि इससे जनता में अविश्वास, आक्रोश, विरोध का भाव उत्पन्न होता है। 

2. दूसरे प्रकार में राजनीतिक व्यवहार से प्रभावित होकर न्याय करना है। इसका तात्पर्य धारणाओं से प्रभावित होकर न्याय प्रदान करना है। जब धारणाओं से प्रभावित होकर न्याय करने का प्रयास किया जाता है तो उसमें मुख्य धारणा न्यायकर्ता का ही होता है और वह अपनी धारणा के अनुसार न्याय करता है। इसे तो किसी भी अंश में स्वीकार नहीं किया जा सकता। 

केजरीवाल के बेल का प्रकरण संभवतः इस राजनीतिक व्यवहार से संबंधित हो सकता है जिसमें न्यायकर्ताओं ने अपनी धारणा के अनुसार पक्ष का ग्रहण किया हो। यद्यपि इस निर्णय पर जनता ने व्यापक विचार रखे हैं व आगे केजरीवाल के व्यवहार (वोट और जेल का संबंध जोड़ना) व स्वाति मालीवाल से सम्बंधित घटना ने तो न्यायकर्ताओं की योग्यता पर भी आशंका उत्पन्न करने वाला सिद्ध होता दिखा उसमें भी तब तो और जब गृहमंत्री ने बार-बार पुनर्विचार करने का संकेत दिया हो। 

#WATCH दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की “अगर आप मुझे वोट देंगे तो मुझे जेल नहीं जाना पड़ेगा” वाली टिप्पणी पर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा, “अगर उन्होंने ऐसा कहा है तो इससे बड़ी सुप्रीम कोर्ट की अवमानना नहीं हो सकती। क्या सुप्रीम कोर्ट जीत और हार के आधार पर गुनाह का… pic.twitter.com/5JM73OuUMz

— ANI_HindiNews (@AHindinews) May 17, 2024


3. फिर आगे तीसरे प्रकार का विचार करें तो ये ज्ञात होता है कि राज्य/सरकार के तीन प्रमुख अंग होते हैं – विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। किसी भी जगह जब कई पक्ष हों तो स्वाभाविक रूप से परस्पर संघर्ष करते हैं, एक-दूसरे से श्रेष्ठ-शक्तिशाली होने का प्रयास करते हैं, अन्य पक्षों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहते हैं। और परस्पर वर्चस्व वृद्धि के लिये भी राजनीति का प्रयोग करते हैं। न्यायपालिका भी जब अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिये प्रयास करती है तो उसे राजनीतिक न्याय कहा जा सकता है। क्या ऐसा राजनीतिक न्याय देश के लिये उचित माना जा सकता है। 

4. चौथे प्रकार में एक ऐसा स्वरूप भी हो सकता है कि सामान्य न्याय के अतिरिक्त राज्य (देश) के हित हेतु जो आवश्यक हो वह न्याय करना। जैसे एक सूत्र है – परिवार हित के लिये यदि एक व्यक्ति का त्याग करना परे तो करे, ग्राम हित के लिये एक परिवार का त्याग करना परे तो करे, राज्य हित के लिये एक ग्राम का त्याग करना परे तो करे। सामान्य न्याय सिद्धांत से तो यह अन्याय सिद्ध हो सकता है किन्तु वास्तव में यदि कोई एक व्यक्ति, परिवार, ग्राम आदि अन्य समूह हेतु हानिकारक हों तो उसका त्याग करना न्याय ही कहलाता है। 

यदि राजनीतिक न्याय का यह अर्थ ग्रहण किया जाय तो अनुचित नहीं कहा जा सकता। किन्तु इस अर्थ में सामान्य न्याय से कि कोई आतंकवादी घटना करे तभी उसे दण्डित किया जायेगा से पूर्व आतंकवादी होने हेतु परीक्षण करके भी दण्डित किया जा सकता है। मान लिया जाय कि एक आतंकवादी 10 लोगों की हत्या करने वाला हो उसके बाद उस आतंकवादी को फांसी देने से तो बहुत ही अच्छा होगा कि 10 लोगों को बचाते हुये पहले ही आतंकवादी को समाप्त कर दिया जाय। 

किन्तु वर्त्तमान में देखा ये जा रहा है कि राजनीतिक न्याय के जिस सिद्धांत को उचित मानते हुये राष्ट्रहित में स्वीकार किया जा सकता है न्यायपालिका ठीक उसके विपरीत जा रही है। 

इसे सिद्ध करने के लिये इतना कथन ही पर्याप्त है कि जो अधिवक्ता आतंकवादियों, नक्सलियों आदि का वाद न्यायालय में लड़ते हैं, देश की संस्कृति के विरुद्ध लड़ते हैं जैसे राम मंदिर, काशी मंदिर, मथुरा मंदिर आदि, जो देश के विकास और शांति के विरुद्ध लड़ते हैं जैसे संसद बनने के विरुद्ध, धारा 370 हटाने के विरुद्ध आदि न्यायपालिका में उनका प्रभाव ही सर्वाधिक है। भले ही वो इन बहुत सारे विवादों में साक्ष्याभाव के कारण पराजित हो जाते हों किन्तु बहुत बार विजय भी प्राप्त करते हैं और “बेल का खेल” तो बहुत आक्रामकता के साथ खेलते हैं। 

पूरा देश जिस केजरीवाल को भ्रष्टाचारी मान रहा है भले ही न्यायालय में आरोपी मात्र हो, खालिस्तानी आतंकवादियों से सांठ-गांठ रखने वाला मान रहा हो उसे तो सामान्य अपराधियों की तुलना में अधिक बड़ा अपराधी मानना चाहये। जबकि उसने कभी भी खालिस्तानी आतंकवादी से सांठ-गांठ वाले आरोप का खंडन भी न किया हो, भले ही बार-बार अपराधी सिद्ध होकर क्षमायाचना करता रहा हो परन्तु उसे सामान्य नियम से ऊपर उठकर विशेष सिद्ध करते हुये अंतरिम बंधन सुरक्षा प्रदान कर देना क्या दर्शाता है ?

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