लोकतंत्र में न्यायपालिका को एक स्वतंत्र अंग बनाया जाता है और ऐसी शक्तियां प्रदान की जाती है जिससे न्याय सत्ता द्वारा प्रभावित न हो सके। लेकिन यदि उन शक्तियों के न्यायपालिका दुरुपयोग करने लगे तो, भले ही न्यायपालिका में सभी कानून और संविधान के पंडित क्यों न हों वह सर्वशक्तिमान होने के भ्रम का भी शिकार हो जाती है।
लोकतंत्र की रक्षिका सर्वशक्तिमान न्यायपालिका
लोकतंत्र में न्यायपालिका को एक स्वतंत्र अंग बनाया जाता है और ऐसी शक्तियां प्रदान की जाती है जिससे न्याय सत्ता द्वारा प्रभावित न हो सके। लेकिन यदि उन शक्तियों के न्यायपालिका दुरुपयोग करने लगे तो, भले ही न्यायपालिका में सभी कानून और संविधान के पंडित क्यों न हों वह सर्वशक्तिमान होने के भ्रम का भी शिकार हो जाती है।
न्याय की सबसे बड़ी अपेक्षा होती है निष्पक्षता। निष्पक्षता अर्थात किसी भी प्रकार से प्रभावित हुये बिना घटना के आरोपी का निर्धारण करना और बिना भेद-भाव के अपराधी को दण्डित करना। अपराधी राजा हो या रंक, पुरुष हो अथवा महिला, उच्च वर्ग हो अथवा निम्न वर्ग, अधिकारी हो अथवा सामान्य नागरिक अपराध सिद्धि में किसी को न तो अड़चन करने का अधिकार हो, न ही दण्ड में असमानता हो और बचाव करने का भी सबको समान अधिकार हो।
किन्तु जब न्याय का अधिकार सत्ता के हाथ में होगा तो निश्चित रूप से पक्षपात होगा। अपने कर्मचारियों का सत्ता पक्ष बचाव करेगा और कर्मचारियों के अतिरिक्त अन्य सामान्य प्रजा को दण्डित करेगा। इस स्थिति में पक्षपात होने के कारण न्याय की सिद्धि कदापि संभव नहीं होगी।
इसलिये लोकतंत्र में न्यायपालिका को एक स्वतंत्र अंग बनाया जाता है जिससे यह न्याय दोष रहित हो, निष्पक्ष हो, और इस कारण न्यायपालिका को कुछ विशेषाधिकार भी प्राप्त होता है। यदि न्यायपालिका को विशेषाधिकार न हो तो वह निष्पक्ष न्याय न कर सकेगी। अर्थात न्याय की अनिवार्य अपेक्षा निष्पक्षता की पूर्ति हो इसे सुनिश्चित करने के लिये न्यायपालिका को कुछ विशेषाधिकार दिये जाते हैं जिससे कार्यपालिका न्याय को प्रभावित न कर सके।
लोकतंत्र की शक्ति
यद्यपि लोकतंत्र की सम्पूर्ण शक्ति प्रजा के पास होती है और प्रजा अपनी शक्ति का प्रयोग विधायिका का निर्वाचन करते हुये अपने प्रतिनिधि के माध्यम से शासन करती है अतः विधायिका के पास न्यायपालिका से भी अधिक शक्ति होती है और न्यायिक शक्ति भी होती है भले ही प्रयोग करे या न करे। विधायिका के पास इतनी शक्ति होती है कि वह न्यायपालिका के सन्दर्भ में भी नीति-निर्धारण कर सकती है, यदि न्यायकर्ता अपने कर्तव्य का समुचित रूप से पालन न करे तो उसे भी दण्डित कर सकती है।
विधायिका में प्रजा की शक्ति स्थापित होने के कारण विधायिका सर्वशक्तिमान होती है। विधायिका कार्यपालिका को भी नियंत्रित करती है और यह नियंत्रण इतना अधिक होता है कि विधायिका जो न चाहे वह कार्यपालिका कदापि नहीं कर सकती। कार्यपालिका शत-प्रतिशत विधायिका की अधीनस्थ इकाई के रूप में कार्य करती है।
अपात की स्थिति में कार्यपालिका भी सर्वशक्तिमान हो जाती है और अपात काल में कार्यपालिका न तो विधायिका की इकाई मात्र रहती है न ही न्यायपालिका की स्वतंत्रता बचती है। कार्यपालिका स्वयं ही विधायिका बन जाती है और न्यायपालिका को भी अपनी अधीनस्थ इकाई बना लेती है। भारत इस स्थिति को एक बार देख चुका है, अर्थात यह सिद्ध भी हो चुका है।
जिस कालखंड में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका तीनों अंगों में से कोई एक अंग निर्बल होता है उस कालखंड में अन्य अंग उस निर्बल अंग की शक्तियों का स्वाभाविक रूप से अधिग्रहण करने लगती है। अथवा यदि कोई एक अंग अत्यधिक बलवान हो तो भी वह अन्य दो अंगों की शक्तियों का अधिग्रहण करने लगती है। यदि विधायिका सबल हो तो वह कार्यपालिका व न्यायपालिका की शक्तियों का अधिग्रहण करने लगती है, यदि कार्यपालिका सबल हो तो वो विधायिका और न्यायपालिका की शक्तियों का अधिग्रहण करने लगती है और यदि न्यायपालिका सबल हो तो वह विधायिका व कार्यपालिका की शक्तियों का अधिग्रहण करने लगती है।
देश ने कुछ दशक पूर्व आपातकाल के उस कालखंड को इंदिरा गाँधी के शासनकाल में देखा था जब कार्यपालिका ने विधायिका और न्यायपालिका की शक्तियों का अधिग्रहण या अपहरण कर लिया था। वर्त्तमान कालखंड में विधायिका सबल है और कार्यपालिका के शक्तियों का अधिग्रहण तो करती है एवं विधायिका व कार्यपालिका में सामंजस्य है, किन्तु न्यायपालिका को नियंत्रित करने का प्रयास नहीं करती। इस कारण न्यायपालिका को भी भ्रम हो रहा है कि वह सबल है।
चूंकि विधायिका सबल है अर्थात न्यायपालिका की शक्तियों का अधिग्रहण भी कर सकती है, न्यायपालिका को सर्वप्रकारेण नियंत्रित कर सकती है किन्तु लोकतंत्र की मर्यादाओं का पालन करते हुये न्यायपालिका के क्षेत्र में घुसपैठ नहीं करती है जिस कारण न्यायपालिका को भी सबल होने का भ्रम होते देखा जा रहा है और न्यायपालिका मर्यादित विधायिका को निर्बल समझने की त्रुटि करते हुये विधायिका व कार्यपालिका की शक्तियों का अधिग्रहण करते पायी जा रही है।
विधायिका न्यायपालिका का सम्मान बचाते हुये अपने विषदंतों का प्रयोग करने से बच रही है। राष्ट्रकवि दिनकर की पंक्ति है “क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो” इस पंक्ति का आश्रय ग्रहण करके विधायिका क्षमाशीलता का प्रदर्शन करते देखी जा रही है। किन्तु न्यायपालिका इस भ्रम में फंसकर कार्य करने लगी है कि विधायिका विषरहित है, विनीत है, सरल है। यदि विधायिका अपने विषदंतों का प्रयोग कर दे तो न्यायपालिका के सम्मान पर भयंकर प्रभाव पड़ेगा, लेकिन न्यायपालिका इस तथ्य से अनभिज्ञता प्रकट कर रही है।
न्यायपालिका के द्वारा विधायिका की शक्तियों का अधिग्रहण करने सम्बन्धी कुछ ज्वलंत उदहारण :
- विधायिका ने न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति हेतु एक कॉलेजियम विधान बनाया था, न्यायपालिका ने लोकतंत्र की मर्यादा का उल्लंघन करके उसको दबा रखा है और ये तथ्य उपराष्ट्रपति ने राज्यसभा (विधायिका) के समक्ष प्रस्तुत किया था।
- नीति निर्माण का कार्य विधायिका का है किन्तु न्यायपालिका नीति निर्माण करने का कार्य करने लगी है। न्यायपालिका यह नियम स्थापित कर चुकी है कि वो जो कह दे वही नीति (कानून) बन जायेगा।
- किसान बिल के सन्दर्भ में लोग स्पष्ट रूप से कह रहे हैं कि न्यायपालिका विधायिका द्वारा पारित विधान पर कुंडली मारकर बैठी हुयी है।
न्यायपालिका कार्यपालिका की शक्तियों का भी अधिग्रहण कर रही है अथवा उसे अनपेक्षित रूप से नियंत्रित करते देखी जा रही है।
- इसकी पुष्टि न्यायपालिका के उन स्वतः संज्ञानों से होता है जिसमें न्यायपालिका द्वारा कुछ विशेष घटनाओं का ही स्वतः संज्ञान लिया गया विशेष महत्वपूर्ण घटनाओं के प्रति ऑंखें मूंद लिया गया। जैसे मणिपुर की घटना को लिया गया किन्तु राजस्थान कर बंगाल की घटनाओं को नहीं लिया गया।
- प्रधानमंत्री की हत्या के षड्यंत्र का जाँच कार्यपालिका करने जा रही थी जिसे न्यायपालिका ने अपने हाथों में लेकर लीपा-पोती कर दिया।
- धारा 370 हटाने के विषय में भले ही न्यायपालिका कोई स्पष्ट प्रभाव न कर पायी किन्तु टिप्पणियों द्वारा विधायिका के सम्मान पर प्रहार फिर भी किया। हाल ही में न्यायपालिका द्वारा दिल्ली के मुख्यमंत्री को लोकतंत्र और चुनाव के नाम पर अंतरिम बंधन सुरक्षा प्रदान किया गया जिसे गृहमंत्री ने स्पेशल ट्रीटमेंट कहा। स्पेशल ट्रीटमेंट का आशय है कि न्यायपालिका ने नीति-विधान-मर्यादा से हटकर अविहित व अनपेक्षित कार्य किया अथवा अपनी शक्तियों का दुरुपयोग किया।
- न्यायधीशों की नियुक्ति वाले विषय में न्यायपालिका ने कार्यपालिका को बारम्बार अवमानना का विषय बनाने संबंधी धमकी दिया।
इस प्रकार वर्त्तमान काल की राज व्यवस्था में जो महत्वपूर्ण बात देखी जा रही है वो यही है कि न्यायपालिका स्वयं को लोकतंत्र व संविधान की रक्षिका घोषित करती है लेकिन विधायिका और कार्यपालिका को लोकतंत्र व संविधान का शत्रु समझती है । लेकिन सच्चाई इसके विपरीत है इस अहंकार के कारण न्यायपालिका स्वयं ही लोकतंत्र को हानि पहुँचाने लगी है । सरकार के तंत्रों द्वारा की जाने वाली कार्यवाही को न्यापालिका भ्रष्टाचार/अपराध के विरुद्ध न मानकर लोकतंत्र के विरुद्ध मानती है अथवा सिद्ध करती है और इसी कारण भ्रष्टाचारियों/अपराधियों के प्रति नरम रुख रखती है व तंत्र के विरुद्ध कठोर ।
वास्तव में न्यायपालिका को लोकतंत्र की रक्षा के लिए सामान्य प्रजा और भ्रष्टाचारियों/अपराधियों में भेद करने की आवश्यकता है । सामान्य प्रजा के हितों की हानि न हो किन्तु भ्रष्टाचारियों/अपराधियों को किसी प्रकार का सम्बल भी प्राप्त न हो इसका निर्धारण करना होगा । यदि हम केजरीवाल का ही उदहारण लें तो बड़े आरोप हैं उनके ऊपर, बारम्बार झूठ भी उन्होंने बोला है जो पूरा देश जानता है फिर न्यायपालिका कैसे नहीं जानती की केजरीवाल झूठा आदमी है ?
चलो अगली बात को समझते हैं केजरीवाल ने बारम्बार अपराध सिद्ध होने पर न्यायपालिका में लिखित क्षमायाचना भी किया है ये तो जानती होगी । अर्थात आदतन अपराधी है फिर न्यायपालिका को इस तथ्य का भी ध्यान विशेष रूप से रखना चाहिए था । केजरीवाल बाहर आते ही पहले तो ये घोषणा करने लगे कि यदि हमें वोट दोगे तो जेल नहीं जाना पड़ेगा, 21 दिनों के अंतरिम बंधन सुरक्षा पर बाहर आने वाला व्यक्ति जिसका जेल जाना निर्धारित है वो सार्वजनिक रूप से कह रहा है कि वोट मिलने पर हम कारागार नहीं जायेंगे ऐसा कौन सा विधान है ।
एक सामान्य व्यक्ति भी समझ सकता है कि यह स्पष्ट रूप से न्यायपालिका को ही चुनौती देना है । किन्तु न्यायपालिका से इस विषय में देश को उत्तर मिलता है कि ये उनकी व्यक्तिगत धारणा है । व्यक्तिगत धारणा उस व्यक्ति के सम्बन्ध में हो सकती है जिसके लिए कारागार जाना सुनिश्चित न हो, जिसका कारागार जाना सुनिश्चित हो उसके लिए ये वक्तव्य व्यक्तिगत धारणा कैसे हो सकती है, उसका वक्तव्य तो न्यायपालिका को चुनौती देना है कि कारागार जाने या न जाने का निर्णय न्यायालय नहीं करेगी चुनाव में जीत-हार करेगी ।
तत्पश्चात एक नया कांड भी कम आवास में करा देते हैं, ये कैसे स्वीकार्य हो सकता है कि स्वाति मालीवाल के साथ जो अभद्र व्यवहार की घटना सामने आयी है उसमें उनका कोई हाथ नहीं है !
न्यायपालिका को अपनी सीमाएं ज्ञात करने की आवश्यकता
न्यायपालिका अपनी सीमाएं संभवतः भूल चुकी है इस कारण ही विधायिका और कार्यपालिका की सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए दिखती है । यदि यह गतिरोध बढ़ता रहा तो लोकतंत्र के हित में नहीं होगा । न्यायपालिका को आत्ममंथन करते हुए अपनी सीमाओं को समझने की आवश्यकता है । राज्य के तीन अंगों में न्यायपालिका का क्रम तीसरा आता है इसे समझना होगा । राज्य में सर्वशक्तिमान प्रजा होती है और वह अपनी शक्ति विधायिका को सौंपती है न कि न्यायपालिका को । न्यायपालिका का कार्य विधायिका द्वारा बनायीं नीतियों का अनुकरण करना, पालन कराना है न की नीति बनाना अथवा विधायिका के द्वारा बनायीं नीतियों को निरस्त करना अथवा स्थगित करना ।
न्यायपालिका विधायिका से ऊपर नहीं होती, नीचे होती है ये सत्य न्यायपालिका को स्वीकार करना चाहिए और स्वयं के सर्वशक्तिमान होने के भ्रम का त्याग करते हुए कार्य करना चाहिए । उस समय अवश्य सजग रहना चाहिए जब कार्यपालिका निरंकुश होने लगे । किन्तु विधायिका के बनाये विधि पर न्यायपालिका को कुंडली मारने का अधिकार नहीं होता ।