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ये बेल का खेल है क्या जनता जानना चाहती है : Bail ka khail

 ये बेल का खेल है क्या जनता जानना चाहती है ? 

आम जनता एक ऐसे मामले में भी फंस जाये जिससे उसका कोई लेना-देना नहीं होता तो भी उसे बेल के लिये महीनों लग जाते हैं। वहीं वो लोग जिनके कृत्य-विडियो सार्वजनिक हों, फिर भी यदि विशेष विचारधारा से जुड़े हों तो कैसे खटाखट बेल मिल जाता है। 

बेल का खेल

बेल का खेल एक आम जनता भी चौराहे पर चर्चा करने लगी है और पूछने लगी है कि ये बेल का खेल क्या है ? लेकिन उससे भी पहले ये जानना आवश्यक है कि जनता को ये जानने का अधिकार है या नहीं ? क्या पता जनता को ये जानने का अधिकार ही न हो ! यदि न्यायपालिका एक पंक्ति मात्र कह दे कि “जनता को बेल का खेल जानने का अधिकार नहीं है” तो जनता को ये अधिकार नहीं होगा और न्यायपालिका के पास इतने असीमित अधिकार हैं। 

400 पार करें तो क्या ये अधिकार मिलेगा ?

अबकी बार 400 पार का नारा जनता लगा रही है और ये प्रधानमंत्री मोदी का कथन है। यदि 400 पार की सरकार बने तो क्या जनता को उसका वास्तविक अधिकार प्रदान करेगी ? ये बेल का खेल क्या है जनता जानना चाहती है लेकिन ऐसी कोई प्रक्रिया नहीं है जिससे जनता ये जान सके। जनता ये भी देख रही है कि साहीनबाग में क्या हुआ था और उसकी परिणति क्या हुई थी। 

किसान बिल पर क्या हुआ था और न्यायपालिका के हस्तक्षेप के उपरांत उसकी परिणति क्या हुई। 

पंजाब में एक ब्रिज पर प्रधानमंत्री का रास्ता कैसे रुका था और क्या योजना थी एवं उसकी जांच में केंद्र सरकार का हाथ कैसे बांध दिया गया था और उसकी परिणति क्या हुई। 

नूपुर शर्मा को उस वक्तव्य के लिये जो कि सम्बंधित पक्ष के प्रामाणिक किताबों में लिखी है क्या-क्या झेलना पड़ा है, सर्वोच्च न्यायालय ने किस प्रकार टिप्पणि करके और हतोत्साहित किया था। 

मनीष काश्यप को किस प्रकार सुनने के लिये सर्वोच्च न्यायालय तैयार ही नहीं था और महीनों बाद बाहर आया। अर्णव गोस्वामी सामान्य श्रेणी के पत्रकार नहीं थे इसलिये शीघ्र ही बाधाओं से मुक्त हो गये किन्तु यदि सामान्य पत्रकार होते तो उन्हें भी महीनों कारावास भोगना पड़ता। 

ऐसे अनेकों प्रकरण हैं जिसमें ये दिखता है कि जो राष्ट्रवादी विचारधारा का होता है भले ही अंत में उसे चैन मिलती हो लेकिन उसे अत्यधिक बेचैन होना परता है। उसके प्रति न्यायपालिका का क्या व्यवहार होता है इसके लिये सामान्य जनता की चर्चा करने की अधिक आवश्यकता ही नहीं है, देश के वर्त्तमान प्रधानमंत्री और गृहमंत्री स्वयं भुक्तभोगी रह चुके हैं। 

मोदी सरकार से हमारा ये प्रश्न है कि इस बेल का खेल के भेद आम जनता को बता सकते हैं। राष्ट्रवादियों को निरपराध होने के बाद भी ऐसी घटनाओं में भी जिसमें वह कहीं से सम्मिलित न हो, कहीं से अपराध न हो फिर भी यदि आरोपी बन जाये तो महीनों जेल में रहना पड़ता है। लेकिन ऐसा कौन सा तंत्र है कि जो राष्ट्रवादी विचारधारा के नहीं होते हैं उनके ऊपर न्यायपालिका की विशेष कृपादृष्टि रहती है। खटाखट बेल मिल जाता है। 

आम जनता की स्थिति 

यदि आम जनता निरपराध भी हो किन्तु उसके पास निरपराध सिद्ध होने के साक्ष्यों का अभाव हो तो वह महीनों झूठे कांड में भी आरोपी बनकर काराबंधन का दंश झेलता है। ये सामान्य सी बात है किसी स्वार्थ के टकराने पर भी आम जनता को यौन शोषण, SC/ST एक्ट का शिकार होकर महीनों तक काराबंधन भुगतना परता है, प्रताड़ित होना परता है। 

एक सामान्य घटना होती है मोबाईल का चोरी होना और वर्त्तमान में भी देश के बहुत लोग इस तथ्य से अनभिज्ञ हैं कि चोरी का मोबाईल खरीदने के कारण उन्हें कारावास भोगना पड़ेगा, वास्तविक अपराधी चोरी करने वाला और बेचने वाला होता है किन्तु बेचारा निरपराध होने के बाद भी उस चोरी के मोबाईल की घटना में महीनों तक जेल में पड़ा रहता है। 

केजरीवाल को स्पेशल ट्रीटमेंट

एक तरफ सामान्य जनता है जो दस-बीस हजार के मोबाईल चोरी का मुख्य अपराधी न होने पर भी महीनों तक कारागार में पड़ा रहता है दूसरी तरफ एक मुख्यमंत्री है जिसने 100-150 मंहगे मोबाईल इसलिये नष्ट कर दिया कि साक्ष्य नष्ट हो जाये, और खटाखट बिना मांगे भी उसे अंतरिम बेल देने के लिये न्यायपालिका स्वयं प्रस्ताव देती है, फिर बेल भी देती है जिसे गृहमंत्री भी कहते हैं कि केजरीवाल को स्पेशल ट्रीटमेंट मिला है। 

केजरीवाल वो व्यक्ति है जो कई बार सर्वोच्च न्यायालय में अपराधी सिद्ध हुआ है और क्षमायाचना किया है, फिर भी सर्वोच्च न्यायालय ये मानती है कि केजरीवाल स्वभावतः अपराधी नहीं है फिर उसने बार-बार क्षमायाचना क्यों किया था ? 

इस स्पेशल ट्रीटमेंट में भी एक और विशेषता है, यदि केजरीवाल राष्ट्रवादी होते तो उन्हें बेल नहीं मिलती, चूँकि राष्ट्रवादी के बड़े विरोधी हैं, खलिस्तानियों से सांठगांठ के कई आरोप लगे हैं जिसका खंडन तक भी नहीं कर पाये, इसलिये स्पेशल ट्रीटमेंट मिला है। एक दूसरे मुख्यमंत्री भी तो हैं हेमंत सोरेन जिनको सुनना मात्र भी बड़ा विषय है। आम जनता की तो बात ही क्या करें ?

#WATCH सुप्रीम कोर्ट द्वारा अरविंद केजरीवाल को अंतरिम ज़मानत दिए जाने पर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा, “…मेरा मानना है कि यह कोई नियमित निर्णय नहीं है। इस देश में बहुत से लोग मानते हैं कि स्पेशल ट्रीटमेंट दिया गया है…”

गृह मंत्री अमित शाह से जब अरविंद केजरीवाल की… pic.twitter.com/oJGxvAP5Vk

— ANI_HindiNews (@AHindinews) May 15, 2024

गृहमंत्री ने ये कहा है कि सुप्रीम कोर्ट का ये अधिकार है और उनके निर्णय का उपयोग या दुरुपयोग भी उन्हीं को देखना है। लेकिन क्या ऐसा नहीं हो सकता कि दुरुपयोग पर न्यायपालिका मौन रहे ? इसकी क्या गारंटी है कौन गारंटी दे रहा है ? एक बार को मान लिया जाय न्यायपालिका स्वयं ही ये निर्धारित करेगी, लेकिन इसे किस प्रकार अस्वीकार किया जा सकता है कि न्यायपालिका आंखें मूंदे बैठी रहेगी? इसके लिये क्या व्यवस्था है ?

स्पेशल ट्रीटमेंट की ये एकमात्र घटना नहीं है इस कड़ी में कई नाम खटाखट जुड़ गये हैं : गौतम नवलखा और प्रबीर पुरकायस्थ। 

इससे पहले भी स्पेशल ट्रीटमेंट की कई घटनाओं को देश ने देखा है : जैसे छुट्टी वाले दिन भी तीस्ता सीतलवार को खटाखट बेल मिल जाना, कांग्रेस नेता पवन खेड़ा को खटाखट बेल मिल जाना। ये बेल का खेल है क्या ? आम जनता को क्यों अधिकार नहीं है उसमें भी उसके साथ तो अन्याय है जो वास्तव में निरपराधी होता है मात्र आरोपी अथवा षड्यंत्र का शिकार होता है। 

सुप्रीम कोर्ट कोर्ट फिक्सरों के कब्जे में है 

इसीलिए तो पूर्व न्यायमूर्ति रंजन गोगोई ने कहा था कि “सुप्रीम कोर्ट कोर्ट फिक्सरों के कब्जे में है” . सुप्रीम कोर्ट कोर्ट फिक्सरों के कब्जे में नहीं है ये कैसे सिद्ध होगा ? उससे भी जटिल प्रश्न तो ये है कि ये सिद्ध कौन करेगा ?

  • क्या ये बेल का खेल कोर्ट फिक्सरों द्वारा ही नहीं किया जाता है? 
  • यदि “सुप्रीम कोर्ट कोर्ट फिक्सरों के कब्जे में है” तो न्याय कैसे संभव है ?
  • क्या “सुप्रीम कोर्ट को कोर्ट फिक्सरों के कब्जे से मुक्त नहीं होना चाहिये” ?
  • क्या ये दायित्व स्वयं सुप्रीम कोर्ट का ही नहीं है कि कोर्ट फिक्सरों को दण्डित करते हुये न्यायतंत्र को उचित मार्ग पर स्थापित करे ?
  • जटिल प्रश्न ये है कि सुप्रीम कोर्ट स्वयं ये सुधार करे तो आखिर कैसे करे, कोई रोगी स्वयं की चिकित्सा कर सकता है क्या ?
  • यदि न्यायपालिका स्वयं यह काम न कर सके तो क्या विधायिका और कार्यपालिका को सोये रहना चाहिये। 

सरकार भले ही उनकी हो, सिस्टम तो हमारा है और मोदी की गारंटी 

कश्मीर फाइल्स की एक पंक्ति “सरकार भले ही उनकी हो, सिस्टम तो हमारा है” भाजपा की प्रचंड बहुमत वाली सरकार को भी इस सिस्टम ने बार-बार ये आभास दिलाया है। क्या इस सिस्टम ने  न्यायपालिका को भी जकड़ रखा है ? 

ढेरों गारंटी देने वाले मोदी क्या इस सिस्टम को उखाड़ फेंकने की गारंटी देंगे ? जनता को ये गारंटी भी चाहिये मोदी जी कि अबकी सरकार मात्र जनता की नहीं होगी सिस्टम भी जनता का होगा। 

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