All about Democracy : लोकतंत्र क्या है, लाभ और हानि क्या हैं, लोकतंत्र की विस्तृत जानकारी ..
एक ऐसा समय था जब पूरी दुनियां में राजतंत्र था, विश्व के अधिकतर देश वर्त्तमान में लोकतंत्र से संचालित हो रहे हैं। किन्तु लोकतंत्र की विस्तृत जानकारी राजनीति पढ़ने वालों को ही मिलती है सामान्य लोगों को लोकतंत्र का अपेक्षित ज्ञान न होना भी लोकतंत्र की सफलता का बाधक होता है। यह पोस्ट लोकतंत्र के सम्बन्ध में वो जानकारी प्रदान करता है जो प्रत्येक मतदाता को जानना चाहिये।
जिन देशों का शासन प्रशासन लोकतंत्र से संचालित होता है उसे लोकतांत्रिक देश कहा जाता है। भारत भी एक लोकतांत्रिक राष्ट्र है। भारत में आये दिन लोकतंत्र खतड़े में हैं देखा-सुना जाता है जिससे मतदाता के भ्रमित होने की संभावना बढती है और अराजकता/अशांति उत्पन्न होने की संभावना बढ़ती है। इस स्थिति में आवश्यकता इस बात की होती है कि सामान्य जनता को लोकतंत्र का वास्तविक ज्ञान हो, वो स्वयं निर्णय करने में सक्षम हो कि लोकतंत्र उचित प्रकार से कार्य कर रहा है अथवा नहीं। इस आलेख में लोकतंत्र के विषय में विस्तृत चर्चा की गयी है जो सामान्य जनता के लिये विशेष रूप से महत्वपूर्ण होने के साथ राजनीति शास्त्रियों के लिये भी उपयोगी सिद्ध होगा।
लोकतंत्र का अर्थ
Democracy का शाब्दिक अर्थ है जनता के द्वारा शासन। यह शब्द ग्रीक डेमोक्राटिया से लिया गया है , जिसे 5वीं सदी ईसा पूर्व के मध्य में कुछ ग्रीक शहर-राज्यों, विशेष रूप से एथेंस में मौजूद राजनीतिक प्रणालियों को दर्शाने के लिए डेमोस (“लोग”) और क्रेटोस (“नियम”) से गढ़ा गया था।
लोकतंत्र का अर्थ : लोकतंत्र भारतीय भाषा का शब्द है जिसको विदेशी शब्द डेमोक्रेसी का पर्याय बताया जाता है, किन्तु भारत में लोकतंत्र की अवधारणा नयी नहीं समझनी चाहिये कारण कि यदि प्राचीन काल में भी पूर्ण राजतंत्र होता तो सत्ता परिवर्तन नहीं देखा जाता, जबकि सत्ता परिवर्तन का इतिहास है। इसकी अधिक चर्चा आगे करेंगे अभी लोकतंत्र का अर्थ समझेंगे।
लोकतंत्र में दो शब्द हैं लोक और तंत्र जिसका अर्थ है “वह तंत्र जो लोगों के द्वारा बनाया गया हो” तंत्र का तात्पर्य राज्य की शासन प्रणाली है, जिसका तात्पर्य होता है शासन के सभी अंग अर्थात कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका। मीडिया को भी लोकतंत्र का स्तम्भ कहा गया है अतः मीडिया भी लोगों के अनुसार ही होना चाहये।
किन्तु सबको लोग बनाये इसका तात्पर्य ये भी नहीं है कि सबका चुनाव ही हो। सपूर्ण तंत्र (मीडिया सहित कार्यपालिका, न्यायपालिका) भी लोगों के अनुसार हो इसलिये विधायिका लोगो द्वारा बनायी जाये और विधायिका बनाने की प्रक्रिया का नाम ही चुनाव (election) है। अर्थात जनता जिस विधायिका का निर्माण करती है उसे अपने अनुकूल सम्पूर्ण शासन तंत्र को चलाने का दायित्व देती है इसका तात्पर्य यह भी है कि लोकतंत्र में विधायिका ही सर्वोपरि होती है क्योंकि विधायिका ही लोगों द्वारा बनाई जाती है ।
लोकतंत्र की परिभाषा
सबसे पहले हमें लोकतंत्र क्या है ये समझना होगा। लोकतंत्र की सबसे महत्वपूर्ण परिभाषा इस प्रकार दी गई है :
अब्राहम लिंकन : “प्रजा का, प्रजा पर, प्रजा के लिये शासन है” लोकतंत्र की परिभाषाओं में से अब्राहम लिंकन द्वारा की गई इस परिभाषा को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है।
इसके साथ ही अनेक दार्शनिकों द्वारा अनेक प्रकार से लोकतंत्र को परिभाषित किया गया और विभिन्न विचारों के आधार पर यह सिद्ध होता है कि लोकतंत्र को निश्चित रूप से परिभाषित नहीं किया जा सकता। क्योंकि :
एक परिभाषा यदि भारत के लिये सही है तो पाकिस्तान के लिये गलत हो सकता है, रूस के लिये सही है तो अमेरिका के लिये गलत हो सकता है, ब्रिटेन के लिये जो परिभाषा सही हो चीन के लिये गलत भी हो सकता है। सभी देशों के वो वर्ग जिनके पास वैचारिक नियंत्रण रहता है वो अपने विचरानुकूल व्याख्या करते रहते हैं।
किसी ने मूर्खों का शासन कहा तो किसी ने बहुमत का।
बहुत सारे परिभाषाओं और वर्तमान विश्व के संदर्भ में लोकतंत्र को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है : “लोकतंत्र एक ऐसी विधा है जिसमें राजनीति की दिशा निर्धारक शक्ति प्रजा में निहित होती है जिसका प्रयोग करना मतदान कहलाता है, किन्तु लोकतंत्र की अवधारणा बहुत विस्तृत है जिसमें बिना किसी भेद-भाव के राज्य के प्रत्येक व्यक्ति की भावना का सम्मान हो”
लोकतंत्र के प्रकार
लोकतंत्र के मुख्य रूप से ये दो प्रकार होते हैं : प्रत्यक्ष लोकतंत्र और अप्रत्यक्ष लोकतंत्र।
प्रत्यक्ष लोकतंत्र : पत्यक्ष लोकतंत्र वह प्रकार है जिसमें विभिन्न विषयों पर जनता का ही विचार लिया जाता हो। अर्थात वो लोकतंत्र जिसमें राज्य की नीतियां जनता प्रत्यक्ष रूप से बनाती हो वह प्रत्यक्ष लोकतंत्र कहलाता है। प्रत्यक्ष लोकतंत्र एक मात्र स्वीट्जरलैंड में पाया जाता है। भारत में पंचायत के लिये जिस आम सभा की अवधारणा अपनायी गयी है वो भी प्रत्यक्ष लोकतंत्र का एक उदाहरण माना जा सकता है किन्तु भारत जैसे विशाल देश में प्रत्येक नीतियों के लिये जनमत संग्रह नहीं कराया जा सकता इस लिये प्रत्यक्ष लोकतंत्र नहीं है।
अप्रत्यक्ष लोकतंत्र : प्रत्यक्ष लोकतंत्र में जैसे जनता स्वयं जनमत संग्रह द्वारा राज्य (देश) की नीतियां बनाती हैं अप्रत्यक्ष लोकतंत्र में ऐसा नहीं होता। विशाल देशों में प्रत्येक नीतियों के लिये जनमत संग्रह कराना संभव नहीं होने के कारण जनता एक निर्धारित कालखण्ड के लिये अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करती है और निर्वाचित प्रतिनिधि ही निर्धारित कालखण्ड में नीतियां बनाती हैं। चूँकि निर्वाचित प्रतिनिधि नीतियां बनाते हैं, जनता स्वयं नहीं बनाती इसलिये इसे अप्रत्यक्ष लोकतंत्र कहा जाता है।
लोकतंत्र के स्तम्भ
राज्य या शासनअथवा सरकार के तीन अंग होते हैं – विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। इन्हीं तीन अंगों को लोकतंत्र का स्तम्भ भी कहा जाता है। इनको लोकतंत्र का स्तम्भ कहने का तात्पर्य है कि इन तीनों अंगों में लोकतंत्र के संरक्षण का उत्तरदायित्व निक्षेप करना अर्थात ये तीनों अंग परस्पर उलझे बिना लोकतांत्रिक मर्यादाओं का पालन करते हुये कार्य करें।
कार्य, शक्तियां तो राज्य/शासन/सरकार का अंग होने से प्राप्त होता है। राज्य के कार्यों और शक्तियों का प्रयोग करने के कारण इन्हें लोकतंत्र का स्तम्भ नहीं कहा गया है अपितु इस लिये कहा गया है कि लोकतांत्रिक मूल्यों का क्षरण न हो इसे अपने-अपने स्तर पर तीनों अंग सुनिश्चित करें, लोकतंत्र को सशक्त करें। इस कारण यहां हम इनके उन कार्यों का वर्णन नहीं करेंगे जो राज्य के कार्य होते हैं।
इन तीनों अंगों में राज्य की शक्तियों का इस प्रकार वितरण किया जाना आवश्यक होता है कि यदि कोई एक अंग लोकतांत्रिक मर्यादा का उल्लंघन करे तो अन्य अंग उसे नियंत्रित भी कर सके। जैसे यदि विधायिका कोई ऐसी नीति बना दे जो संविधान के विरुद्ध हो तो उसे न्यायपालिका असंवैधानिक घोषित कर सकती है, इसी प्रकार कार्यपालिका को भी कई मामलों में रोक-टोक सकती है।
जब मीडिया का प्रभाव बढ़ने लगा तो मीडिया को भी लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाने लगा। मीडिया को चतुर्थ स्तंभ बनाने का उद्देश्य था मीडिया में जनहित की भावना/उत्तरदायित्व का स्थापन करना। किन्तु मीडिया जनहित की भावना से कार्य करे या न करे, इस अहंकार से अवश्य ग्रस्त हो गयी की वो भी लोकतंत्र का चतुर्थ स्तंभ है। जिसके पास पत्रकार लिखा हुआ पहचान पत्र हो, जिसके वाहन में पत्रकार/प्रेस लिखा हुआ हो उसका ध्यान सातवें आसमान पर चला जाता है।
आगे हम इन चारों स्तम्भों का वर्त्तमान स्वरूप समझने का प्रयास करेंगे।
वर्त्तमान भारत में लोकतंत्र के स्तम्भों का बदलता स्वरूप
वर्तमान भारत में विधायिका : एक ऐसा भी कालखण्ड था जब विधायिका परम स्वतंत्र की भूमिका में दिखने लगी थी, फिर शनैः शनैः विधायिका में सत्ता पक्ष को पूर्ण बहुमत का अभाव होने के कारण शक्तिहीन होने लगी और ज्यों-ज्यों विधायिका शक्तिहीन होते गयी त्यों-त्यों न्यायपालिका शक्तिशाली बनती गयी। वर्त्तमान में शक्तिशाली विधायिका ने कई महत्वपूर्ण कार्य किया जैसे जम्मू-कश्मीर से धारा 370 को निरस्त करना, GST आदि।
किन्तु चाहे जिस कारण से भी हो वर्त्तमान भारत में न्यायपालिका के समक्ष यदि सभ्य भाषा में कहा जाय तो एक नतमस्तक विधायिका देखने को मिली भले ही कितनी भी सशक्त क्यों न रही हो। यह स्वस्थ लोकतंत्र के अभाव का संकेत था।
इसके कई व्यावहारिक कारण हो सकते हैं और व्यावहारिक कारणों से राष्ट्रहित को सिद्ध करना ही वास्तविक स्वस्थ लोकतंत्र कहा जायेगा, न कि सभी अंगों का परस्पर संघर्ष करना। किन्तु कुछ उदहारण ऐसे हैं जिन्हें लोकतांत्रिक नहीं माना जा सकता तथापि प्रस्तुति संभव नहीं क्योंकि न्यायपालिका के पास एक विशेषाधिकार भी है जो उसे निरकुंश बनाता है, स्वतः संज्ञान लेते हुये मानहानि का अपराधी घोषित किया जा सकता है।
ये भी वर्त्तमान लोकतंत्र में दुर्गुण आ गया है जिसे डरना चाहिये, जो अपराधी हो वो सभी जहां-जैसे-जो मन हो करें किन्तु जिसको बोलना चाहिये, अपनी बात बतानी चाहिये उसे कहने में भय है कि कहीं मानहानि का आरोपी न बन जाऊं। और इस कारण से कई महत्वपूर्ण तथ्य हैं जो यहां प्रकट नहीं किये जा रहे हैं। ये एक गंभीर विषय है और लोकतंत्र के सभी स्तम्भों को इस विषय पर आत्ममंथन करना चाहिये कि उनसे कहां त्रुटि हो रही है।
मुख्य रूप से यह कार्य भी विधायिका का ही है, स्वयं की शक्तियों को पहचाने, हमारे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का संरक्षण करे। लोकतंत्र में शक्ति जनता में निहित होती है जो जनता अपने प्रतिनिधि को प्रदान करती है, यदि जनता के प्रतिनिधि द्वारा बनाये गए नियम पैरों तले कोई रौंद दे तो वो लोकतंत्र पर प्रहार ही है। विधि का निर्माण करना विधायिका का ही कार्य है, कार्यपालिका या न्यायपालिका का नहीं, और कैसे विधान बनाये जायेंगे इसीलिये बार-बार चुनाव किया जाता है।
वर्तमान भारत में कार्यपालिका : वर्त्तमान भारत में कार्यपालिका (केंद्रीय) को जमकर कार्य करते हुये देखा गया है। अवरोधकों ने कितने भी प्रयास किये हों यदि कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाय युद्ध स्तर पर कार्य किया गया है। कोरोना त्रासदी से निपटने में भारत की कार्यपालिका ने जो मार्ग अपनाया वह अद्वितीय रहा, विश्व और भविष्य के लिये अनुकरणीय रहा। भारत को विश्व की पांचवी अर्थव्यवस्था बनाना अभूतपूर्व उपलब्धि है। सेवाकार्य निचले स्तर तक पहुंचना भी ऐतिहासिक है।
कार्यपालिका ने यद्यपि पूर्ण शक्ति का प्रयोग नहीं किया और इसलिये नहीं किया की लोकतंत्र को मृत घोषित कर दिया जाता। तथापि भ्रष्टाचार के विरुद्ध कार्यपालिका ने सकारात्मक कार्य किया है जो सराहनीय है। सराहनीय इस कारण से है कि लोकतंत्र को सशक्त बनाते हुये किया। यहाँ हम लोकतंत्र के विषय में चर्चा कर रहे हैं अतः लोकतंत्र के परिप्रेक्ष्य में ही कार्यपालिका के कार्यों को समझने का प्रयास समुचित माना जायेगा। यहाँ कार्यपालिका से तात्पर्य केंद्रीय कार्यपालिका समझना चाहिये।
जिनके ऊपर भ्रष्टाचार या अपराध निरोधक शक्तियों का प्रयोग कार्यपालिका ने किया उन पक्षों ने बारम्बार लोकतंत्र की हत्या का आरोप लगाया तथापि कार्यपालिका ने लोकतंत्र को सशक्त करते हुये कार्य किया है। इसे किसी ने सिद्ध नहीं किया कि कार्यपालिका ने लोकतंत्र की हत्या कैसे किया और यदि कार्यपालिका ने लोकतंत्र की हत्या किया तो संरक्षण विधायिका, न्यायपालिका, मीडिया आदि हैं न। उन्होंने तो कार्यपालिका को अपेक्षित मात्रा में भी कार्यपालिका को शक्ति प्रयोग नहीं करने दिया फिर लोकतंत्र की हत्या कैसे सिद्ध हो सकती है।
यदि भ्रष्टाचारी नेताओं, आपराधिक तत्वों, षड्यंत्रकारियों के विरुद्ध कार्यपालिका अपनी संविधानिक शक्तियों का प्रयोग करे तो उससे लोकतंत्र की हत्या नहीं होती लोकतंत्र सशक्त होता है। लोकतंत्र की हत्या तब होती है जब कार्यपालिका इन सबको संरक्षण दे और ऐसा पूर्व के काल में हुआ था, वर्त्तमान कल में नहीं हुआ।
वर्तमान भारत में न्यायपालिका : वर्त्तमान में भारतीय न्यायपालिका स्वयं को शिखर पर स्थापित करने का प्रयास करते देखी जा रही है, जैसे संसद से पारित नीतियों के संवैधानिक-असंवैधानिक व्याख्या से आगे बढ़ते हुये किसी भी विधान को निरस्त करने की नयी परंपरा का आरम्भ करना, कानून बना देना आदि। ये अलग बात है कि संघर्ष बढ़ने के भय से विधायिका अपनी शक्तियों का प्रयोग नहीं करती अन्यथा विधायिका के पास संविधान संशोधन की शक्ति भी निहित होती है।
न्यायपालिका को विधायिका द्वारा पारित विधियों के समीक्षा का अधिकार होता है, वो संवैधानिक है या नहीं। यदि कोई विधि असंवैधानिक हो तो समीक्षा मात्र से असंवैधानिक सिद्ध करने भर से वह विधि प्रचलन में लाना संभव नहीं होता, आवश्यक संशोधन अनिवार्य हो जाता है। किन्तु न्यायपालिका को ये अधिकार नहीं होता कि यदि कोई विधान असंवैधानिक नहीं हो तो भी उसे निरस्त कर दे, अथवा किसी भी प्रकार से प्रचलित न होने दे। यदि न्यायपालिका ऐसा करती है तो न्यायपालिका लोकतांत्रिक मूल्यों का संवर्द्धन नहीं करके क्षरण करती है।
न्यायपालिका को विधि निर्माण का अधिकार नहीं होता किन्तु वर्त्तमान भारत में ऐसा पाया जा रहा है कि न्यायपालिका विधायिका के अधिकारक्षेत्र में अतिक्रमण करते हुये विधि का निर्माण भी करने लगी है। इसे लोकतांत्रिक सिद्ध नहीं किया जा सकता। न्यायपालिका को आत्ममंथन करने की आवश्यकता है।
मीडिया : मीडिया को प्रारंभिक काल से ही एक विशेष विचारधारा के अधीन देखा जा रहा है। विगत कुछ वर्षों में देखा जा रहा है कि मीडिया को सामान्य जन और जनहित से कोई लेना देना नहीं रह गया, स्वार्थ से हो अथवा दुराग्रह से हो या जिस-किसी भी कारण से हो; भारत की मूल संस्कृति के विरुद्ध, लोकतांत्रिक मूल्यों के विरुद्ध कार्य करती पायी जा रही है।
जो दण्ड का पात्र होता है मीडिया उसके अधिकार की बात करती है, किन्तु जिसे न्याय की अपेक्षा होती है मीडिया आवाज नहीं बनती है। मीडिया जनसामान्य तक कभी पहुंच ही नहीं पायी मीडिया एक वर्ग विशेष तक ही सीमित रही और मात्र उसी को देश की आवाज बताती रही है। इसी कारण वर्त्तमान लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी बार-बार मीडिया को जगाने का प्रयास कर रहे हैं।
मीडिया का एक ऐसा वर्ग भी प्रकाश में आया है जो विदेशों से धन अर्जित करते हुये देश के विरुद्ध गतिविधियों में संलिप्त बताया जा रहा है।
मीडिया का सबसे बड़ा पाप : किसान आंदोलन जिसे बहुत लोग किसान आंदोलन नहीं मानते हैं खालिस्तानी आंदोलन मानते हैं; के समय मीडिया ने भी नंगा-नाच किया था। लेकिन 26 जनवरी को लालकिले पर तिरंगा का जो अपमान किया गया उसके लिये पूर्ण रूप से (परोक्षतः) मीडिया उत्तरदायी है। उस दिन की घटना को याद करें जिस दिन टिकैत रोया था। यदि उस समय मीडिया उसका रोना-धोना न दिखाती तो वह आंदोलन वहीं समाप्त हो जाता और 26 जनवरी को तिरंगे का अपमान नहीं होता।
मीडिया को आत्मसुधार की आवश्यकता : मीडिया यदि स्वयं को लोकतंत्र का स्तम्भ मानती है तो उसे आत्ममंथन और आत्मसुधार करने की आवश्यकता है।
लोकतंत्र के लाभ-हानि व अन्य विषयों की चर्चा अन्य आलेख में करेंगे।
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