लोकतंत्र में राज्य अथवा शासन के तीन अंग होते हैं : विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। इन तीनों अंगों के कार्य और शक्तियां भी अलग-अलग होती है और एक-दूसरे को सर्व शक्तिमान होने से रोक तो कर सकते हैं किन्तु एक-दूसरे पर आधिपत्य नहीं कर सकते। वर्त्तमान भारत की न्यायपालिका को विधायिका और कार्यपालिका के ऊपर आधिपत्य स्थापित करते हुये देखा जा रहा है। इस आलेख में कुछ घटनाओं का उदाहरण प्रस्तुत करते हुये इसी विषय पर चर्चा की गयी है।
क्या न्यायपालिका सर्वोच्च है, राजनीतिक रूप से सर्व शक्तिमान है ?
यह आलेख राजनीति के विषय में है, वर्तमान परिप्रेक्ष्य में राज्य के तीनों अंगों के तुलनात्मक अध्ययन से सम्बंधित है, और किसी प्रकार से न्यायपालिका की अवमानना के लिये संदर्भित नहीं किया जा सकता। किसी भी घटना का उल्लेख समझ बढ़ाने हेतु उदाहरण स्वरूप किया गया है। यह आलेख राजनीति के छात्रों की समझ बढ़ाने में उपयोगी हो सकता है।
क्रम के अनुसार स्थिति
सर्वप्रथम इन तीनों अंगों का क्रमवार स्थिति समझना आवश्यक है। तीनों का क्रम इस प्रकार आता है : विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। यह क्रम ही सिद्ध करता है कि राज्य में इन तीन अंगों की वास्तविक स्थिति क्या है ? विधायिका प्रथम क्रम पर आती है और इसी कारण सर्वोच्चता विधायिका को प्राप्त होती है।
लोकतंत्र में विधायिका की सर्वोच्चता का और भी एक कारण है और वो है जनता द्वारा निर्वाचन करके विधायिका में लोकतंत्र की शक्ति का स्थापन करना।
संविधान की सर्वोच्चता कितना सही कितना गलत
प्रायः ऐसा बोला जाता है कि संविधान सर्वोच्च होता है किन्तु यह भ्रमित करने वाला तथ्य है। तुलना तीनों अंगों में की जा रही हो तो संविधान मध्यवर्ती कैसे हो सकता है ? अर्थात जब तीनों अंगों में तुलनात्मक अध्ययन करते हुये सर्वोच्चता का निर्धारण करना हो तो उस प्रश्न में संविधान कहीं आता ही नहीं है।
दूसरा तथ्य यह भी है कि संविधान की सर्वोच्चता तात्पर्य भी वास्तव में विधायिका की सर्वोच्चता का ही संकेत करता है क्योंकि विधायिका ही संविधान में संशोधन कर सकती है, कार्यपालिका या न्यायपालिका के पास संविधान में संशोधन का अधिकार नहीं होता, अपितु संविधान प्रदत्त अधिकार और कर्तव्यों का पालन करना होता है। यह अलग बात है कि लोकतंत्र की मर्यादा के अनुसार विधायिका स्वयं के लिये भी विधान बनाती है और उसका पालन करती है तथापि विधायिका के पास उन विधानों के संशोधन का भी अधिकार होता है।
इस प्रकार कुछ विशेष तथ्य स्पष्ट होते हैं :
- संविधान द्वारा ही तीनों अंगों के अधिकार और कर्तव्यों का निर्धारण होता है।
- तीनों अंग संविधान से बंधे होते हैं अर्थात संविधान का पालन करना तीनों अंगों के लिये बाध्यकारी होता है।
- न्यायपालिका को संविधान का कोई विधान अनुचित लगता हो तो भी उसमें संशोधन करने का अधिकार न्यायपालिका के पास नहीं होता।
- अध्यादेश का अधिकार के कारण कार्यपालिका के पास क्षणिक अधिकार होता है, किन्तु पूर्ण अधिकार नहीं होता। और कार्यपालिका यदि कभी ऐसा करे तो उसे दुरुपयोग करना कहा जाता है और उसकी निंदा की जाती है। एक बार इंदिरा गांधी के कार्यकाल में आपातकाल लगाने के बाद ऐसा उदाहरण देखा गया है।
- तथापि कार्यपालिका के पास वास्तव में यह अधिकार नहीं होता अंततः जनता को विधायिका में निर्वाचित प्रतिनिधि भेजने का अधिकार होता है और पुनर्निर्वाचित विधायिका उन सभी विधानों को निरस्त कर सकती है।
- लेकिन विधायिका के पास संविधान संशोधन का असीमित अधिकार होता है और वर्त्तमान लोकसभा चुनाव में इंडी गठबंधन द्वारा संविधान बदलने की बात कहकर तथ्य की पुष्टि की जा रही है।
उपरोक्त तथ्यों के आधार पर यह पूर्ण रूप से स्पष्ट हो जाता है कि तीनों अंगों के लिये संविधान बाध्यकारी है, किन्तु कार्यपालिका या न्यायपालिका संविधान में संशोधन नहीं कर सकती विधायिका संविधान में संशोधन कर सकती है अतः विधायिका की सर्वोच्चता सिद्ध होती है।
सर्वोच्च होना न्यायपालिका का भ्रम
न्यायपालिका में समीक्षा संबंधी जो कुछ अधिकार संविधान द्वारा स्थापित किया गया है उसका मूल कारण यह है कि विधायिका कदाचित निरंकुश न हो जाये। लेकिन भ्रमवश न्यायपालिका में इस समझ का विकास हो गया कि चूंकि समीक्षा का अधिकार है अतः वह विधायिका से भी ऊपर है और सर्वोच्च है।
न्यायपालिका की केंद्रीय अथवा राष्ट्रीय शाखा को मूल माना जाता है और न्यायपालिका के सन्दर्भ में उसे सर्वोच्च अथवा उच्चतम न्यायालय (Supreme Court) कहा जाता है। संभवतः इस कारण भी न्यायपालिका को विधायिका व कार्यपालिका की तुलना में भी सर्वोच्चता का भ्रम होता है। जबकि सर्वोच्चता का तात्पर्य न्यायालय मात्र के सन्दर्भ में है न कि राज्य के अंगों के सन्दर्भ में। ये तो ठीक वैसे है जैसे किसी और व्यक्ति का नाम भी नरेंद्र मोदी हो तो वह स्वयं को प्रधानमंत्री समझने लगे।
न्यायपालिका के भ्रमित होने का प्रमाण
न्यायपालिका वास्तव में भ्रमित है अथवा नहीं इसके लिये कुछ प्रमाण तो अपेक्षित होते हैं। प्रमाण रहित तथ्य तो कल्पना मात्र ही होते हैं। आगे कुछ महत्वपूर्ण प्रमाण हैं जिससे यह सिद्ध होता है कि न्यायपलिका सर्वोच्च होने के भ्रम से भ्रमित है :
- विधायिका और कार्यपालिका सदस्यों की नियुक्ति संविधान से होती है किन्तु न्यायपालिका संविधान से नहीं स्वयं के विधान से नियुक्त करने लगी है, जिसे अंकल कल्चर भी कहा जाता है।
- विधायिका (संसद) ने न्यापालिका के सदस्यों की नियुक्ति हेतु भी 31 दिसंबर 2014 को NJAC विधान बनाया जिसे न्यायपालिका ने वर्त्तमान काल तक स्वीकार अर्थात प्रचलित नहीं किया है। ये संविधान से भी सर्वोच्च होने का भ्रम नहीं है तो क्या है ?
- न्यायपालिका द्वारा कई बार कार्यपालिका (सरकार) को अवमानना की धमकी दी गयी ये भ्रम नहीं है तो क्या है ? क्रम में कार्यपालिका न्यायपालिका से पहले आता है तो कार्यपालिका के ऊपर न्यायपालिका स्वयं को कैसे स्थापित कर सकती है और अवमानना की धमकी किस अधिकार से दे सकती है ?
अवमानना का अधिकार और त्रुटि
न्यायपालिका के पास न्यायिक आदेशों का पालन सुनिश्चित कराने के लिये एक विशेष अधिकार है अवमानना का अधिकार। अर्थात न्यायपालिका जो भी न्याय करती है उसे नहीं मानने पर अवमानना माना जाता है, लेकिन न्यायपालिका ने कार्यपालिका (सरकार) को अवमानना की धमकी देकर नये शिरे से विचार करने की आवश्यकता को प्रकट किया। न्यायपालिका द्वारा अवमानना संबंधी धमकी न्यायकर्ताओं की नियुक्ति वाले प्रकरण में देखी गयी थी।
सामान्य शिष्टाचार का नियम है बड़ों का सम्मान करना और छोटों को प्यार देना। न्यायपालिका तीसरे क्रम पर आती है अतः शिष्टाचार के सामान्य नियमानुसार भी न्यायपालिका के लिये यह अपेक्षित होता है कि प्रथम और दूसरे क्रम पर आने वाले विधायिका व कार्यपालिका का सम्मान करे। यदि सम्मान नहीं कर पाती है तो वास्तव में यही अवमानना होती है।
यहां प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि विधायिका व कार्यपालिका के पास भी अवमानना का अधिकार क्यों नहीं हो ?
विधायिका के पास अवमानना का अधिकार : विधायिका के पास जो अवमानना का अधिकार हो वह कार्यपालिका व न्यायपालिका ऊपर भी प्रभावी हो क्योंकि विधायिका प्रथम क्रम पर आती है। वैसे कार्यपालिका पूर्ण रूप से विधायिका के प्रति उत्तरदायी होती है और न्यायपालिका को भी नियंत्रित करने के लिये विशेष अधिकार विधायिका के पास है किन्तु एक अवमानना का भी अधिकार होना चाहिये।
लेकिन यह भी समझना आवश्यक है कि विधायिका के पास क्यों अवमानना का अधिकार क्यों होना चाहिये ? कई बार देखा गया है कि न्यायपालिका किसी भी कानून में मनमाना परिवर्तन कर देती है जबकि कानून बनाने निरस्त करने का अधिकार संविधान से विधायिका के पास संरक्षित है, न्यायपालिका का कार्य विधायिका द्वारा बनाये गये विधि के अनुसार न्याय करना होता है न कि विधि का निर्माण करना। इस सन्दर्भ में यह आवश्यक हो जाता है कि विधायिका के पास भी अवमानना का अधिकार हो।
कार्यपालिका के पास अवमानना का अधिकार : कार्यपालिका के पास भी अवमानना का अधिकार होना चाहिये और इसमें विधायिका प्रथम क्रम पर होने से सन्निहित नहीं की जा सकती किन्तु न्यायपालिका तृतीय क्रम पर होने से सन्निहित की जा सकती है। देश चलाने का वास्तविक कार्यभार कार्यपालिका के पास ही होता है। इसी कारण सरकार का तात्पर्य ही कार्यपालिका समझा जाता है। जब सरकार का तात्पर्य ही कार्यपालिका समझी जाती है तो निःसंदेह कार्यपालिका के पास भी अवमानना का अधिकार होना चाहिये।
कई बार देखा गया है कि षड्यंत्रकारियों द्वारा षड्यंत्र रचा जाता है और फिर न्यायपालिका कार्यपालिका के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करती रहती है। न्यायपालिका का कार्य न्याय करना होता है देश चलाना नहीं। देश चलाना कार्यपालिका का कार्य होता है और इसमें न्यायपालिका द्वारा अवरोध नहीं उत्पन्न हो इसके लिये कार्यपालिका के पास भी अवमानना का अधिकार होना चाहिये।
न्यायपालिका द्वारा कार्यपालिका के लिये अवरोध उत्पन्न करने का दो प्रमुख उदाहरण – वर्त्तमान कार्यपालिका के कार्यों में ही न्यायपालिका द्वारा दो बार विशेष अवरोध उत्पन्न किया गया अथवा हस्तक्षेप किया गया :
- प्रथम तो पंजाब में प्रधानमंत्री की हत्या का जो षड्यंत्र था जिसकी जांच कार्यपालिका करने जा रही थी, न्यायपालिका ने उसमें कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में अनपेक्षित हस्तक्षेप करके जांच अपने हाथ में ले लिया। प्रधानमंत्री देश का प्रधान होता है उसके काफिले को रोका गया और प्रधानमंत्री ने स्वयं कहा कि मैं जिंदा बच गया। ऐसे गंभीर विषय पर भी कार्यपालिका के कार्य में न्यायपालिका ने हस्तक्षेप करके उचित किया यह समझना कठिन है।
- द्वितीय वो जब न्यायपालिका मुख्य निर्वाचन आयुक्त के नियुक्ति में हस्तक्षेप कर चुकी थी, यद्यपि न्यायपालिका को पुनः बाहर कर दिया गया लेकिन यह अनपेक्षित हस्तक्षेप का सर्वोत्तम उदाहरण है।
इसी प्रकार अन्य ढेरों प्रकरण हैं जहां न्यायपालिका स्वयं को कार्यपालिका से श्रेष्ठ मानते हुये अनपेक्षित हस्तक्षेप करती रहती है। जबकि क्रम और कार्य के अनुसार कार्यपालिका ही श्रेष्ठ सिद्ध होती है। न्यायपालिका को यदि कुछ संविधान प्रदत्त अधिकार है भी तो मात्र इस उद्देश्य से कि कार्यपालिका निरंकुश न बने, न कि प्रत्येक कार्य में अनपेक्षित हस्तक्षेप करने के लिये।
न्यायपालिका के पास अवमानना का अधिकार : न्यायपालिका के पास अवमानना संबंधी अधिकार है। किन्तु न्यायपालिका इसे ब्रह्मास्त्र समझती है, न्यायपालिका को ऐसा लगता है कि वह अपने अवमानना के अधिकार का प्रयोग कार्यपालिका पर भी कर सकती है और न्यायकर्ताओं की नियुक्ति प्रकरण में अवमानना संबंधी धमकी देना इसी का बोध कराता है।
न्यायपालिका के पास जो अवमानना का अधिकार है उसका वास्तविक तात्पर्य मात्र उसके कार्यों के सन्दर्भ से ही है। न्यायपालिका का कार्य न्याय करना है अर्थात न्यायिक आज्ञा का यदि पालन न किया जाय तो ही अवमानना का प्रयोग कर सके, मनमानी व्याख्या करके मनमाना प्रयोग नहीं।
न्यायपालिका के कार्यों की समीक्षा
साथ ही देश चलाने का वास्तविक कार्यभार कार्यपालिका के पास ही होता है अतः न्यायपालिका सही-सही कार्य कर रही है या नहीं यह भी कार्यपालिका के कार्यों में सन्निहित होना चाहिये। न्यायपालिका के उन कार्यों की समीक्षा का अधिकार तो निश्चित रूप से होना चाहिये जिसका विस्तृत व दूरगामी प्रभाव होने वाला हो।
न्यायपालिका के कार्यों की समीक्षा न हो सकती है इससे तो यह सिद्ध होता है जैसे न्यायपालिका में मानव नहीं होते हैं और चूंकि मानव नहीं होते अतः मानवीय त्रुटि नहीं हो सकती। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं है न्यायकर्ता भी मानव ही होते हैं और मानवीय भूल न्यायकर्ताओं से भी संभावित होती है इसे किसी प्रकार अस्वीकार नहीं किया जा सकता।
फिर न्यायपालिका के कार्यों की समीक्षा क्यों नहीं होनी चाहिये ? न्यायपालिका के कार्यों की समीक्षा नहीं होती और न्यायकर्ताओं को समीक्षा से स्वतंत्र होने के कारण ही कई ऐसे आदेश, टिप्पणियां करते रहे हैं जिसके कारण न्यायपालिका की प्रतिष्ठा का हनन हुआ है, सोशल मीडिया पर व्यापक निंदा हुई है।
इसका सर्वोत्कृष्ट उदाहरण केजरीवाल को चुनाव के नाम पर अद्वितीय अंतरिम बंधन सुरक्षा प्रदान करना है। जबकि स्वयं न्यायपालिका ने ही हेमंत सोरेन की अंतरिम बंधन सुरक्षा याचिका के संबंध में यह भी सिद्ध कर दिया कि न्यायिक बंधन में होने पर अंतरिम बंधन सुरक्षा नहीं दी जा सकती।
गृहमंत्री भी यह स्पष्ट कर चुके हैं कि केजरीवाल को अंतरिम बंधन सुरक्षा मिलना विशेष व्यवहार अथवा सुविधा (स्पेशल ट्रीटमेंट) था, और देश ने भी सोशल मीडिया के माध्यम से इसकी कटु आलोचना की। निःसंदेह न्यायपालिका की प्रतिष्ठा भी धूमिल हुई। लेकिन आगे प्रश्न यह है कि जब देश भी इसे उचित नहीं मानता हो, गृहमंत्री को भी विधिसम्मत नहीं लगता हो तो इसकी समीक्षा क्यों नहीं होनी चाहिये ?
देश ने न्यायपालिका को मणिपुर प्रकरण में बहुत सक्रिय देखा किन्तु वहीं उससे भी गंभीर प्रकरण बंगाल विधानसभा चुनाव की हिंसा, महिलाओं का उत्पीड़न हुआ था उसपर सक्रिय नहीं हुई, राजस्थान वाले प्रकरण पर सक्रिय नहीं हुई। यदि साहिनबाग आंदोलन में तत्परता से सक्रिय होती तो दिल्ली दंगा नहीं होता। इसकी समीक्षा क्यों नहीं होनी चाहिये ?