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बोया पेड़ बबूल का आम कहां से होय, खतड़े में है लोकतंत्र कितना कोई रोय

बोया पेड़ बबूल का आम कहां से होय, खतड़े में है लोकतंत्र कितना कोई रोय

यद्यपि खान मार्केट गैंग इसे गलत ही सिद्ध करेंगे लेकिन देवेश चंद्र ठाकुर ने साहसिक कार्य करते हुये मात्र अपना दर्द ही नहीं पूरी भाजपा और मोदी के भी दर्द को व्यक्त किया। वास्तव इस प्रकार का वक्तव्य देने में सर के बाल नोंचे जाने का भी भय होता है और बोल नहीं पाते। उन्होंने स्पष्टता से सत्य प्रकट किया और कहा आपने वोट देते समय तीर नहीं देखा लालटेन देखा तो मैं आपके भीतर तीर कैसे देखूं लालटेन क्यों न देखूं। इस प्रसंग में कई सामान्य प्रश्न और आरोप-प्रत्यारोप होते रहेंगे, लेकिन यहां हम उससे आगे बढ़कर गंभीर विमर्श करेंगे।

बोया पेड़ बबूल का आम कहां से होय, खतड़े में है लोकतंत्र कितना कोई रोय

ये अलग बात है कि कुछ लोग इसे विवादित बोल भी कहेंगे, कुछ लोग लोकतंत्र को खतड़े में बतायेंगे और नाना प्रकार के राग अलापेंगे। लेकिन कोई ये नहीं कहेगा की यह सिद्ध सूत्र है कर्म का फल या क्रिया की प्रतिक्रिया। यदि क्रिया सही है तो प्रतिक्रिया भी सही ही होगी क्योंकि प्रतिक्रिया का अस्तित्व ही क्रिया पर टिका होता है। यदि प्रतिक्रिया गलत है तो इसका तात्पर्य यह है कि क्रिया ही गलत थी।

  • वास्तव में ये पूरे देश का दर्द है कि मतदान करने में जाति और संप्रदाय क्यों देखा जाता है ?
  • यदि मतदान करते समय जाती और संप्रदाय ही देखा जाता है तो काम करते समय भी क्यों नहीं देखा जायेगा ?
  • जिसने साथ दिया उसका साथ देना गलत कैसे हो सकता है ?
  • लेकिन यहां काम करने और न करने का तात्पर्य निजी कार्यों से है न कि सरकारी योजनाओं से।
  • यदि सरकारी योजनाओं में भी ऐसा हो तो गलत होगा, प्रधानमंत्री मोदी हों या कोई भी प्रतिनिधि वो उसके भी प्रतिनिधि होते हैं जिसने वोट नहीं दिया और कोई भी आधिकारिक काम करने में इस आधार पर भेदभाव नहीं कर सकते।
  • किन्तु जब वोट जिहाद की धारणा सामने आयी है तो यथाशीघ्र इसका प्रतिरोध भी आवश्यक है और उचित है।

लोकतंत्र खतड़े में

कहते हैं “बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से होय” और चुनावी राजनीति इसकी अगली पंक्ति बनाते दिख रही है “खतड़े में है लोकतंत्र कितना कोई रोय” क्योंकि देवेश चंद्र ठाकुर के इस वक्तव्य को लोकतंत्र के लिये खतड़ा सिद्ध करने का प्रयास किया जा सकता है और खान मार्केट गैंग इसी काम में माहिर है वो सिद्ध भी कर सकती है।

सबसे पहली बात जो कोई भी यह कहे कि लोकतंत्र खतड़े में है उससे पहले यह पूछना चाहिये कि बंगाल के लोकतंत्र को तुमने क्यों नहीं देखा। आगे देखने बोलने की बात नहीं करनी है, पीछे जो बारंबार चुनावी हिंसा होती रही है, जिसने बनने वाली सरकार को वोट नहीं किया उसके साथ हिंसा, प्रताड़ना, मानसिक उत्पीड़न आज पहली बार नहीं हो रहा है, यही होता रहा है। बंगाल में स्वस्थ लोकतंत्र रहा है क्या ? और पूछने वाले को ही पूछना चाहिये कि बंगाल के इस कुकर्म को तुमने कब कुकर्म कहा था, कब लोकतंत्र के लिये खतड़ा कहा था ? कश्मीर पर प्रश्न करो क्या हुआ था ?

उत्तर देने की आवश्यकता नहीं है उनसे ही हिसाब लेने की आवश्यकता है कि तुम अपनी ईमानदारी सिद्ध करो। ऐसा इसलिये आवश्यक है कि वो आपको प्रश्न करके उलझाना चाहेंगे, रोकना चाहेंगे। लेकिन मूल प्रश्न तो यह है कि जो लोग लोकतंत्र को खतड़े में बोलेंगे उन्होंने कब-कब लोकतंत्र की रक्षा किया था ? जब-जब वास्तव में लोकतंत्र पर खतड़ा आयी थी, तब-तब वो क्या बोल रहे थे, क्या कर रहे थे ?

उत्तरदायी कौन

उसके बाद पुनः और भी स्पष्टीकरण अपेक्षित है कि चलो देवेश चंद्र ठाकुर ने जो वक्तव्य दिया उससे लोकतंत्र खतड़े में है। ठीक है लेकिन यह तो प्रतिक्रिया है। प्रतिक्रिया का आधार तो क्रिया ही होती है। प्रतिक्रिया यदि गलत है लोकतंत्र के लिये खतड़ा है तो उसका आधार क्या था, किस क्रिया की प्रतिक्रिया है ? लोकतंत्र के लिये तो वास्तविक खतड़ा वो क्रिया है।

उत्तरदायित्व का निर्धारण करना अनिवार्य है अन्यथा टिड्डी दल ऐसा उत्पात मचायेंगे कि देवेश चंद्र ठाकुर को ही लोकतंत्र का खतड़ा सिद्ध कर दिया जायेगा और जदयू उत्तर देने में हिचक रही है, असहजता का अनुभव कर रही है। लेकिन यह स्वर मात्र देवेश चंद्र ठाकुर का नहीं है भाजपा के सामान्य कार्यकर्ताओं से लेकर मोदी तक के अंतर्मन की ध्वनि है।

ये तो सिद्ध है कि देवेश चंद्र ठाकुर का वक्तव्य प्रतिक्रिया है क्रिया नहीं। तो क्रिया क्या है ? क्रिया है वोट जिहाद और MY समीकरण। इसका उत्तरदायी कौन है अर्थात इस वृक्ष का बीजारोपण से सिंचन तक किसने किया और फल कौन तोड़ रहा था। इस MY समीकरण का बीजारोपण से लेकर सिंचन तक बिहार में राजद ने और उत्तरप्रदेश में सपा ने किया था। इसका फल भी वही लगभग 15 वर्षों तक तोड़ते रहे और अभी भी तोड़ ही रहे हैं ये अलग बात है कि वृक्ष के बगल में एक अन्य बड़ा वृक्ष उत्पन्न हो चुका है।

अंततः सिद्ध ये होता है कि लोकतंत्र के लिये इसे खतड़ा कहना अनुचित नहीं है, उचित ही है किन्तु ये खतड़ा आज उत्पन्न नहीं हुआ है इस खतड़े का बीजारोपण कुछ दशक पूर्व दो क्षेत्रीय राजनीतिक दलों ने किया था और उत्तरदायी भी वही हैं।

यदि यह प्रतिक्रिया लोकतंत्र के लिये खतड़ा है तो इसका अभी आरंभ ही हुआ है ये दिनोंदिन बढ़ते ही दिखेगा और जब तक क्रिया को नहीं रोका जायेगा तब तक प्रतिक्रिया के रुकने की आशा करना मूर्खता के अतिरिक्त और कुछ नहीं होगा। यदि किसी को वास्तव में लोकतंत्र के इस खतड़े का निवारण चाहिये तो उसे इसके मूल में जाकर क्रिया के समापन का प्रयास करना होगा अन्यथा यदि प्रतिक्रिया मात्र को अनुचित सिद्ध करने का प्रयास करते हैं तो यह खुल्लम-खुल्ला “चोरी और सीनाजोड़ी” के अतिरिक्त और कुछ नहीं होगा।

स्वस्थ लोकतंत्र में मतदान

  • एक गंभीर प्रश्न है कि स्वस्थ लोकतंत्र में मतदान काम के आधार पर होना चाहिये या जाति और संप्रदाय के आधार पर।
  • यदि मतदान जाति और संप्रदाय के आधार पर किया जाता है तो यह सही है क्या ?
  • यदि जाति और संप्रदाय के आधार पर मतदान होना गलत है तो क्या इसके उन्मूलन का प्रयास करना चाहिये या इसके प्रतिक्रिया में कोई वक्तव्य आता है तो उस वक्तव्य को लेकर उड़ना चाहिये और “कौवा कान लेकर उड़ गया” वाली कहावत का पात्र बनना चाहिये।

लोकसभा चुनाव के प्रथम चरण के उपरांत ही मोदी और भाजपा को भी यह ज्ञात हो गया था कि मतदान काम के आधार पर नहीं संप्रदाय के आधार पर हो रही है वोट जिहाद हो रहा है जो आगे जाकर सपा नेत्री ने खुले मंच से स्पष्ट कर दिया था।

मोदी और भाजपा ने 400 पार का नारा काम के आधार पर मतदान का आकलन करके दिया था। लेकिन मतदान काम के आधार पर नहीं हो रहा था संप्रदाय के आधार पर वोट जिहाद हो रहा था जिसके फलस्वरूप जो मोदी पहले दो कार्यकालों में “सबका साथ सबका विकास” की बात करते रहे और उसमें विश्वास-प्रयास आदि जोड़कर आगे बढ़ाते रहे वह पूर्ण रूप से विफल होता दिखा। जिसके बाद मोदी और भाजपा भी उसी धारा में बहने लगे क्योंकि धारा के विपरीत नहीं चला जा सकता।

यदि संप्रदाय के आधार पर वोट करना सही हो सकता है तो हिन्दुओं का ध्रुवीकरण भी गलत नहीं हो सकता। यदि एक संप्रदाय ध्रुवीकृत होकर मतदान करे तो उसकी काट में काम को आगे नहीं किया जा सकता, उसकी काट दूसरे संप्रदाय के भी ध्रुवीकरण से ही किया जा सकता है। इस दिशा में भाजपा और मोदी तब आगे बढे जब काम पर वोट का विकल्प ही अशेष हो गया।

मोदी और भाजपा भी काम पर वोट नहीं मांग रही थी इसका प्रमाण विपक्षियों का यह आरोप है कि आपने काम नहीं किया था इसलिये काम पर वोट नहीं मांग रहे हैं, यदि काम किया है तो काम गिनाकर वोट मांगिये। इससे स्पष्ट होता है कि भाजपा भी काम के आधार पर मतदान नहीं होता है इस सत्य को स्वीकार कर चुकी थी और अव्यक्त शब्दों के माध्यम से ही सही लेकिन जो उचित था वही करती रही।

लोकतंत्र के खतड़े का निवारण क्या है

लोकतंत्र के लिये मात्र यही एक खतड़ा नहीं है कई खतड़े हैं किन्तु यहां इसी खतड़े के निवारण का विचार करना उचित है। यद्यपि ऊपर पूर्णरूप से निवारण स्पष्ट हो जाता है किन्तु यदि निवारण को एक पंक्ति में कहा जाय तो वो पंक्ति है कि जनता को इतना जागरूक बनाया जाना चाहिये की वो काम के आधार पर मतदान करें, जाति और संप्रदाय के आधार पर नहीं।

इसके लिये चुनाव प्रक्रिया में ही सुधार की आवश्यकता है जिसकी चर्चा आगे करेंगे। वास्तविक दोष चुनाव प्रक्रिया में ही है।

दोषी कौन

यद्यपि सभी राजनीतिक दल और मीडिया इसका दोष जनता पर ही थोपेंगे लेकिन इसमें जनता का दोष नहीं है दोषी राजनीतिक दल और मीडिया है, जनता नहीं। राजनीतिक दल और मीडिया वास्तव में जनता के मस्तिष्क को नियंत्रित करते हैं। सामूहिक अथवा लक्षित जनता को वास्तव में राजनीतिक दल और मीडिया उस दिशा में सोचने के लिये बाध्य कर देते हैं जो चाहते हैं। राजनीतिक दल और मीडिया प्रमुख हैं लेकिन यही मात्र हैं ऐसा नहीं है जनता को सोच को सोशल मीडिया, फिल्म, धारावाहिक, विज्ञापन आदि के माध्यम से भी प्रभावित किया जाता है।

ये राजनीतिक दलों का ही कुकर्म है कि आज वोट जिहाद होने लगा है, जाति और संप्रदाय के आधार पर ही मतदान हो रहा है। इसकी दोषी जनता नहीं है, जनता को आंशिक रूप से मात्र उन सीटों के लिये दोषी-गुणी कहा जा सकता है जहाँ से निर्दलीय प्रत्याशी को विजयी बनाती है।

भविष्य में इस प्रश्न के उत्तर में सभी राजनीतिक दलों को उत्तरदायी सिद्ध किया जायेगा, राजनीतिक दल और मीडिया एक दूसरे पर दोषारोपण करने का प्रयास भी कर सकते हैं और इसका बीजारोपण भी लोकसभा चुनाव 2024 में हो गया है। लेकिन इस प्रकरण में यह नहीं बताया जायेगा कि भाजपा ने दो कार्यकालों में यह प्रयास किया कि मतदान काम पर हो, जाति संप्रदाय पर नहीं हो। लेकिन इस प्रयास में भाजपा हार गयी। यही बताया जायेगा कि सभी दल समान रूप से दोषी हैं।

दोषी वो दल हैं जिन्होंने तुष्टिकरण की नीति अपनाकर एक संप्रदाय का ध्रुवीकरण किया था, दोषी वो दल हैं जिन्होंने भूराबाल मिटाओ गढ़ा था, दोषी वो दल हैं जिसने MY समीकरण बनाया था। भाजपा यदि दो कार्यकालों तक इस दोष को दूर करने के प्रयास में विफल हो गयी तो ये भाजपा की विफलता और दोषी दलों की सफलता है; भाजपा का दोष नहीं।

चुनाव प्रक्रिया में दोष

चुनाव प्रक्रिया का बहुत बड़ा दोष है चुनाव प्रचार। इस दोष को कोई विश्लेषक कोई बौद्धिक कभी भी प्रकट ही नहीं करेगा। चुनाव प्रक्रिया में यदि किसी सबसे बड़े सुधार की आवश्यकता है तो वो है चुनाव प्रचार बंद करना और निर्वाचन आयोग द्वारा निर्धारित मानकों के आधार पर सभी पक्षों के कार्यों का आंकड़ा प्रकाशित करना। मीडिया द्वारा निर्धारित मानकों के आधार पर प्रकाशित आंकड़ों का विश्लेषण करना। यदि ऐसा किया जाने लगा तो काम के आधार पर मतदान होगा अन्यथा अन्य किसी प्रकार से संभव नहीं।

जब तक राजनीतिक दलों को चुनाव प्रचार करने का अधिकार होगा तब तक लोकतंत्र के विभिन्न दोषों का निवारण नहीं हो सकता। राजनीतिक दल और मीडिया तब भी मतदाताओं को भ्रमित करते रहेंगे जब भ्रमित करना भी दंडनीय अपराध बन जाये। दंडनीय अपराध होने से क्या कोई अपराध रुका है। यदि दंडनीय अपराध होने से अन्य अपराध नहीं रुका है तो ये कैसे रुकेगा ? यदि कोई यह कहे कि मतदाता को भ्रमित करना दंडनीय अपराध की श्रेणी में सम्मिलित करने से यह दोष दूर हो जायेगा तो वह ही आंखों में धूल ही झोंकने का काम करेगा।

निवारण कैसे करना चाहिये

चुनाव प्रचार मतदाताओं को भ्रमित करने, अपव्यय आदि का बहुत बड़ा कारण है और इसे एक झटके के साथ बंद कर देना चाहिये। लेकिन वो झटका पहले किसी छोटे चुनावों में परीक्षण करके ही हो।

  • सबसे पहले तो कार्यों के आंकड़े के लिये मानक निर्धारित करना चाहिये; यथा : विभिन्न विकास, गरीबी उन्मूलन, जीवनस्तर में सुधार, शैक्षणिक सुधार, आर्थिक उन्नति, अपराध व नियंत्रण, भ्रष्टाचार, संस्कृति संरक्षण, आतंकवाद-नक्सलवाद पर नियंत्रण आदि।
  • इन निर्धारित मानकों पर चुनाव आयोग सभी राजनीतिक दलों की सरकारों के आंकड़े प्रकाशित करे।
  • मीडिया , राजनीतिक विश्लेषक आदि उन आंकड़ों का तुलनात्मक विश्लेषण करें।
  • सभी नेता एक तरह से नजरबंद रहें, किसी प्रकार से जनसंपर्क न करें।
  • चुनावी घोषणापत्र के ऊपर भी प्रतिबंध लगाया जाना चाहिये। बनने वाली सरकार आगे क्या करेगी यह उसके पिछले कार्य के आंकड़ों और योजनाओं से ही स्पष्ट हो जायेंगे।

इसी प्रकार से और भी तथ्य हो सकते हैं और विस्तार किये जा सकते हैं। यदि चुनाव प्रचार पर रोक लगा दिया जाय और काम के आधार पर ही मतदान होगा यह सुनिश्चित कर दिया जाय तो निश्चित रूप से काम के आधार पर मतदान की दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है।

साथ ही यह भी आवश्यक होगा कि एक घोषणा चुनाव आयोग ही करे कि पंथ के आधार पर आरक्षण असंवैधानिक है और जो राजनीतिक दल सरकार बनने पर इस दिशा में कोई प्रयास करते देखे जायेंगे उनकी मान्यता ही समाप्त कर दी जायेगी। आरक्षण को अंततः समाप्त होना है ये बोलने में राजनीतिक दलों को समस्या हो सकती है लेकिन चुनाव आयोग को नहीं क्योंकि चुनाव आयोग को चुनाव नहीं लड़ना है। इस दिशा में चुनाव आयोग ही रणनीति बनाकर शनैः शनैः आगे बढे।

ये कदापि नहीं कहा जा सकता कि इसमें कोई दोष नहीं होगा। “जड़-चेतन गुण-दोष मय” है, इस प्रक्रिया में भी दोष हो सकते हैं हमें दोष भले न दिखे किन्तु जिन्हें करना है उन्हें और भी व्यापक गुण और दोष दिख सकते हैं। दोषों का विशेष रूप से आकलन करके अधिकतम दूर करने का प्रयास करने का ही प्रावधान होता है न कि दोष का बहाना बनाकर हाथ पर हाथ रखकर बैठने का।

चुनाव प्रचार के दोष

जहां तक चुनाव प्रचार के गुण-दोषों की बात है उसमें गुण क्या है यह तो ज्ञात ही नहीं हो पाता लेकिन दोषों की खान है यह ज्ञात होता है। चुनाव प्रचार के मुख्य दोष इस प्रकार कहे जा सकते हैं :

  • धन का व्यापक अपव्यय होता है, आर्थिक क्षति होती है।
  • जातिवाद, संप्रदायवाद आदि प्रबल होता है और सामाजिक विद्वेष सबल होता है।
  • गरीब और अमीर के मध्य भी अंतर्कलह का वातावरण बनता है।
  • राजनीतिक दल और नेता सभी नैतिकताओं को तिलांजलि दे देती है और अनैतिकता का प्रसार जनता तक भी होता है।
  • अनैतिकता का जनता तक होने वाला प्रवाह मात्र समाज में ही सीमित नहीं रहता परिवार तक जाता है।
  • चुनाव प्रचार के कारण ही विदेशी हस्तक्षेप भी संभव होता है।
  • चुनाव प्रचार को ध्यान में रखने के कारण कोई भी सरकार सही से काम नहीं कर पाती, चुनावी सभाओं की भी तैयारी में एक लम्बा समय व्यय करती है।
  • केवल सरकारों का समय ही चुनावी सभाओं के लिये व्यय नहीं होता अपितु मतदाताओं का भी समय निरर्थक व्यय हो जाता है। निरर्थक इसलिये कि चुनावी सभाओं के माध्यम गुणों का विकास नहीं दोषों का विस्तार होता है।

निष्कर्ष : देवेश चंद्र ठाकुर का वक्तव्य के विषय का आरंभ भले ही लोकतंत्र के सतही खतड़े के रूप में होता है किन्तु इसकी जड़ तक भी जाता है और उन्मूलन करने की आवश्यकता को भी प्रकट करता है। लोकतंत्र के दोष जाति और संप्रदाय के आधार पर मतदान को प्रकट करता है और काम के आधार पर मतदान की आवश्यकता को बल देता है जिसकी दिशा में आगे बढ़ने की आवश्यकता है और इसके लिये सभी राजनीतिक दलों और चुनाव आयोग व अन्य संस्थाओं को भी विचार करके उत्कृष्ट मार्ग पर चलने की आवश्यकता है।

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