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बोल कि लव आजाद हैं तेरे, बोला नहीं तो ले डूबेंगे

बोल कि लव आजाद हैं तेरे, बोला नहीं तो ले डूबेंगे

एक समय राहुल गांधी और कांग्रेस कह रही थी “बोल कि लव आजाद हैं तेरे” लेकिन यह एक पहलू ही था। इसका इस सिक्के का दूसरा पहलू भी है और वो है “बोला नहीं तो ले डूबेंगे” जो बोला नहीं जा सकता है मात्र मन और व्यवहार में रखा जा सकता है। यहां इस विषय को लेकर ही विमर्श किया गया है कि तब क्या संकेत था और अब क्या संकेत है ?

बोल कि लव आजाद हैं तेरे, बोला नहीं तो ले डूबेंगे

“बोल कि लव आजाद हैं तेरे” का एक तात्पर्य यह होता है कि सभी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है और सभी बोल सकते हैं। ये किसी व्यक्ति के द्वारा दिया गया अधिकार नहीं संविधान प्रदत्त अधिकार है। साथ ही राहुल गांधी को चुनाव अभियान में बारम्बार संविधान दिखाते हुये भी देखा गया था। राहुल गांधी संविधान को खतड़े में बता रहे थे और लोगों को संविधान रक्षा करने के लिये कांग्रेस व इंडि गठबंधन के पक्ष में मतदान करने के लिये प्रेरित करते रहे।

तात्पर्य यह है कि किसी डर के कारण मौन रहने की आवश्यकता नहीं है, जो मौन हैं; अन्याय-अपराध-अनीति-षड्यंत्र के विरुद्ध नहीं बोल पा रहे हैं उन्हें डरना नहीं चाहिये। जहां कहीं भी अन्याय-अपराध-अनीति-षड्यंत्र हो उसके विरुद्ध स्वतंत्रता पूर्वक बोलना चाहिये। लेकिन यही राहुल गांधी और कांग्रेस बंगाल की चुनावी हिंसा पर मौन रहते हैं, क्या इनके लव आजाद नहीं हैं ?

लेकिन दूसरा पहलू जो प्रच्छन्न है वह ये है कि अन्याय-अपराध-अनीति-षड्यंत्र के विरुद्ध नहीं बोलना है सरकार के विरुद्ध बोलना है। सरकार के सही कामों में भी कहीं न कहीं से दोषारोपण ही करो विपक्ष जो कहता है वही सही है और वही बोलो।

लव आजाद तो हैं किन्तु सरकार के विरुद्ध बोलने के लिये, विपक्ष के विरुद्ध बोलने के लिये नहीं। विपक्ष जो करे सब ठीक है, जो कहे वही सही है। विपक्ष से न तो प्रश्न किया जा सकता है न ही विरोध में कुछ बोला जा सकता है। लेकिन सरकार के पक्ष में भी नहीं बोला जा सकता है, सरकार से प्रश्न करना ही होगा, सरकार को गलत कहना ही होगा और वो इसलिये कहना होगा कि ऐसा विपक्ष कहता है।

फिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का क्या होगा

यहां जो प्रश्न उत्पन्न होता है वो ये है कि यदि अभिव्यक्ति की वास्तविक स्वतंत्रता है तो सरकार हो या विपक्ष दोनों के ऊपर बोला जा सकता है। दोनों से प्रश्न किया जा सकता है, दोनों की त्रुटियां उजागर की जा सकती है। दोनों में जो सही हो उसका समर्थन किया जा सकता है। लेकिन जब यह कहा जाय (परोक्ष दबाव) कि सरकार के विरुद्ध ही बोलना होगा और विपक्ष के समर्थन में ही बोलना होगा तब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहां चली जायेगी ? इसका कोई उत्तर भी नहीं देगा।

मतलब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मात्र छलावा है क्या ? यदि सरकार के विरुद्ध बोलना बाध्यकारी है, विपक्ष के पक्ष में बोलना बाध्यकारी है तो लव आजाद कैसे है ? लव आजाद हैं, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है तो विपक्ष के विरुद्ध क्यों नहीं बोला जा सकता है ?

यदि विपक्ष के पक्ष में न बोलकर सरकार के पक्ष में बोला तो

यदि विपक्ष का पक्ष लेते हुये सरकार के विरुद्ध न बोले और विपक्ष के विरुद्ध ही बोले, विपक्ष से ही प्रश्न करे तो क्या ? इसका उत्तर कहके नहीं; करके बताया जा रहा है अर्थात इस संबंध में प्रत्यक्ष रूप से बोलना संभव नहीं है लेकिन प्रच्छन्न रखते हुये व्यवहार से बताया जा सकता है कि क्या होगा ?

जो प्रच्छन्न भाव और दूसरा पहलू है वो है “बोला नहीं तो ले डूबेंगे”

  • यदि आप सरकार के विरुद्ध – “बोला नहीं तो ले डूबेंगे”
  • यदि विपक्ष का साथ नहीं दिया, विपक्ष के विरुद्ध बोला, विपक्ष से प्रश्न किया तो “ले डूबेंगे”
  • विपक्ष जो बोलता है वही बोलो और यदि – “बोला नहीं तो ले डूबेंगे”

ये आशंका है या सिद्ध तथ्य

अब प्रश्न यह आता है कि “बोला नहीं तो ले डूबेंगे” ये कोई आशंका है या सिद्ध तथ्य ? जिस समय “बोल कि लव आजाद हैं तेरे” बोला गया था उस समय मात्र आशंका थी, वर्त्तमान में यह आशंका नहीं सिद्ध तथ्य है। कोई तथ्य सिद्ध कैसे होता है; प्रमाण से। क्या सिद्ध तथ्य होने का कोई प्रमाण है; हाँ कई प्रमाण है।

प्रथम प्रमाण : जब महाराष्ट्र में महाविकास अघारी की सरकार थी तब सुशांत सिंह (आत्महत्या या हत्या), पालघर, परमबीर सिंह, शाहरुख खान का बेटा आदि कई प्रकरण पर जोड़ों की चर्चा चल रही थी और इस चर्चा में सबसे आगे अर्णव गोस्वामी थे। अन्य सभी ने खानापूरी कर लिया, बात मान लिया किन्तु अर्णव गोस्वामी डटा रहा और अर्णव गोस्वामी पर हमला करने का भी प्रयास किया गया, अर्णव गोस्वामी को जेल भी भेजा गया। एक अभिनेत्री कंगना रनौत थी जिसके घर में तोड़-फोड़ करके “उखाड़ लिया” तक लिखा गया था।

दूसरा प्रमाण : अमन चोपड़ा ने पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी का एक ऐसा साक्षात्कार लिया था जो कांग्रेस के विरुद्ध थी। अलवर में शिवमंदिर तोड़ने पर प्रश्न किया था। अमन चोपड़ा को भी दूसरे प्रकरण में राजस्थान में जहां कांग्रेस की सरकार थी केस का सामना करना पड़ा था। यदि गलती होना केस का कारण बन सकता है तो जो जानबूझ कर दशकों से देश को झूठी सूचना देते रहे उनके विरुद्ध कोई केस क्यों नहीं किया गया।

तीसरा प्रमाण : बिहार में जब महागठबंधन की सरकार थी तब मनीष काश्यप को भी कानूनी पेंच में फंसाकर रासुका लगाकर महीनों तक जेल में रखा गया था अत्याचार किया गया था। मनीष काश्यप के लव आजाद क्यों नहीं था ?

चौथा प्रमाण : चौथे प्रमाण में रजत शर्मा पर कांग्रेस प्रवक्ता रागिनी नायक द्वारा लगाया गया आरोप आता है। यदि कोई सामान्य पत्रकार होता तो उसको बर्बाद कर दिया जाता। रजत शर्मा ने प्रधानमंत्री मोदी का सबसे बड़ा साक्षात्कार किया था जो कांग्रेस को चुभ गई और रजत शर्मा पर निशाना साधा। यद्यपि इसमें कांग्रेस स्वयं ही फंसती दिख रही है।

पांचवां प्रमाण : पांचवे प्रमाण में अभिजीत भारती का नाम आता है जिसके ऊपर भी कर्नाटक में केस कर दिया गया है।

और कितने प्रमाण चाहिये कि विपक्ष का ये दबाव है कि सरकार के विरुद्ध बोलो, विपक्ष के सुर-में-सुर मिलाओ और यदि ऐसा नहीं किया तो ले डूबेंगे। क्या इसी प्रकार संविधान की रक्षा की जायेगी ? क्या यही है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ? यदि भ्रामक सूचना की बात करें तो कई ऐसे पत्रकार हैं जिन्होंने खुले में झूठ बोला था उस पर केस नहीं क्यों किया गया था, इसलिये कि वो झूठ विपक्ष के सुर-में-सुर मिलाने के लिये बोला गया था।

सरकार कब जागेगी

सीधे-सीधे यह संदेश दिया जा रहा है कि पत्रकारों को विपक्ष के सुर-में-सुर मिलाना होगा और सरकार के विरुद्ध बोलना होगा नहीं तो प्रताड़ना का सामना करना पड़ेगा। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता उतनी ही है जितनी सरकार की विरोध की जा सके, विपक्ष से प्रश्न नहीं किया जा सकता, विपक्ष के विरुद्ध नहीं बोला जा सकता। अब प्रश्न यह है कि सरकार क्या कर रही है ? सरकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और भ्रामक सूचना के विरुद्ध दश वर्षों तक सोई क्यों रही ?

आगे ऐसा बताया जा रहा है कि सरकार जाग गई है और इस संबंध में कानून लाने जा रही है। भ्रामक सूचना के विरुद्ध कानून बनाने वाली है। लेकिन यह प्रश्न तो अभी भी अनुत्तरित ही है कि जो विपक्ष का साथ नहीं देंगे उसके संरक्षण के लिये क्या करेगी ?

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